मेकअप पर सारा ज़ोर!


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  फोटो सौजन्यः वर्ल्ड बैंक

पिछले दिनों ये खबर आई कि सालाना विश्व प्रतिभा सूचकांक (global annual talent ranking) में इस वर्ष भारत दो पायदान फिसल गया. 2017 में भारत इस रैंकिंग में 53वें नंबर पर था. इस वर्ष 55वें स्थान पर आया है. यह सूचकांक तैयार करने वाली स्विट्जरलैंड की संस्था आईएमडी बिजनेस स्कूल इन कसौटियों पर ये रैंकिंग तैयार करती है- किसी देश में स्थानीय प्रतिभा के विकास में होने वाला निवेश, कोई देश किस सीमा तक अपनी प्रतिभाओं को बाहर जाने से रोक पाता है और दूसरे देशों की प्रतिभाओं को आकर्षित कर पाता है; और उपलब्ध प्रतिभाओं में कैसे कौशल (स्किल) का विकास किया जाता है. इस संस्था के मुताबिक भारत में अच्छी क्वालिटी की शिक्षा में पर्याप्त निवेश का अभाव है. बहरहाल, इस रिपोर्ट की अपने देश में ज़्यादा चर्चा नहीं हुई.

यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि पिछले महीने विश्व बैंक ने मानव पूंजी सूचकांक जारी किया, तो उससे भी भारत की कमजोर छवि सामने आई थी. 157 देशों की उस लिस्ट में भारत 115वें नंबर पर आया था. यह सूचकांक पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों के जीवित बचने की संभावना, अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा मिलने के औसत वर्ष, और स्वास्थ्य देखभाल की कुल स्थिति को ध्यान में रखते हुए तैयार किया जाता है. ध्यान में रखने की बात है कि यह रैंकिंग विश्व बैंक की है, किसी ऐसे एनजीओ की नहीं, जिनसे सत्ताधारी अक्सर चिढ़े रहते हैं. इसके बावजूद भारत सरकार ने इस रैंकिंग को स्वीकार करने से इनकार कर दिया. तर्क दिया गया कि इसके आकलन की विधि खामियों से भरपूर है.

इन दोनों रिपोर्टों को जिस तरह नज़रअंदाज करने की कोशिश हुई, उसे इसी बात की मिसाल समझा जाएगा कि भारत सरकार और अपने देश के मीडिया का एक बड़ा हिस्सा उस सच को देखना या स्वीकार करना नहीं चाहता, जो उसकी आंखों में चुभते हैं. इस रूप में मौजूदा सरकार पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी के इस कथन को सच साबित करती लगती है कि उसकी निगाह में अर्थव्यवस्था के प्रबंधन का मतलब मीडिया की सुर्खियों को ‘मैनेज’ करना है.

यह ‘मैनेजमेंट’ कैसे किया जाता है इसका एक खुलासा वेबसाइट हफपोस्ट ने किया है ये कहानी बताती है कि भारत सरकार ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के कारोबार में आसानी (ease of doing business) रैंकिंग में भारत का दर्जा सुधरवाने के लिए कैसी जुगतें भिड़ाईं. हफपोस्ट का दावा है कि उसने सैकड़ों पेजों में दर्ज बैठकों की कार्यवाहियों और आधिकारिक पत्रचारों का अध्ययन किया और संबंधित महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों से बातचीत की. इसके बाद इस वेबसाइट ने अपनी रिपोर्ट में लिखा- ‘दस्तावेजों से जाहिर हुआ है कि मोदी सरकार ने पहले कोशिश की कि वर्ल्ड बैंक (सूचकांक तैयार करने का अपना) तरीका बदल ले, ताकि भारत का दर्जा बेहतर दिखे. जब इसमें कामयाबी नहीं मिली, तो भारत सरकार ने छोटे-मोटे संस्थागत एवं प्रक्रियागत बदलाव किए ताकि रैंकिंग सिस्टम को अपने मुताबिक किया जा सके. लेकिन उसने अपने वादे के अनुरूप आर्थिक सुधारों का कोई साहसी एजेंडा नहीं अपनाया.’

तो ये पहेली अब आसानी से समझ आती है कि ईज ऑफ डूइंग बिजनेस रैंकिंग में भारत की स्थिति में भारी सुधार के बावजूद देश में निवेश क्यों नहीं बढ़ रहा है. बल्कि इसमें लगातार गिरावट आई है. 2011 में निवेश की दर जीडीपी के 38 फ़ीसदी के बराबर थी, जो अब 27 प्रतिशत तक गिर चुकी है.

यानी मेकअप करके चेहरा चमकाने की कोशिश खूब हुई है, लेकिन सेहत सुधारने पर ध्यान नहीं दिया गया है, जिससे स्वाभाविक चमक आती. अब साफ है कि नरेंद्र मोदी सरकार का यह रुख देश को बेहद महंगा पड़ा है. सच पर पर्दा डाल कर हकीकत के उलट दावे करने की इस रणनीति का इससे अलग परिणाम और क्या हो सकता है?


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