संवैधानिक भावना की धज्जियां


women entry in sabrimala temple

 

सबरीमला के भगवान अयप्पा मंदिर में पहले दो और फिर एक श्रीलंकाई महिला के प्रवेश के बाद केरल में विस्फोटक स्थिति बनी हुई है. ध्यान से देखें तो साफ हो जाता है कि मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के खिलाफ यह कोई स्वतः-स्फूर्त प्रतिक्रिया नहीं है. बल्कि हालात को सियासी मकसदों से भड़काया गया है. ऐसी कोशिशें इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद ही शुरू हो गई थीं.

भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े दूसरे संगठन ऐसे प्रयासों में खुलेआम शामिल हैं. उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को सबरीमला मंदिर (और प्रकारांतर में हिंदू धर्म) की परपंरा के खिलाफ बताया और सड़कों पर उतर कर इसका विरोध करने में कोई हिचक नहीं दिखाई है.

दरअसल, उन्होंने रोजमर्रा के स्तर पर ये जताने की कोशिश की है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ चल रहे आंदोलन का नेतृत्व उनके हाथ में ही है. इस रुख के पीछे प्रेरक तत्व सचमुच “आस्था” है या राजनीतिक गणना- इस बारे में हम साफ तौर पर कुछ नहीं कह सकते. लेकिन यह निर्विवाद है कि इस रुख के कारण केरल में जो हालात बने हैं, उनसे सीधे तौर पर भारत की संवैधानिक व्यवस्था के लिए चुनौती खड़ी हो गई है.

इन स्थितियों के बीच सबसे उलझी स्थिति में कांग्रेस नज़र आती है. उसके केंद्रीय नेतृत्व ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन किया है, वह खुद को हर मुकाम पर महिलाओं को समान अवसर देने का पक्षधर बताता है, लेकिन उसकी केरल प्रदेश इकाई इस राज्य में ‘हिंदू भावनाओं’ को तुष्ट करने की होड़ में उतरी नजर आती है.

जबकि अपेक्षित यह था कि आधुनिकता समर्थक पार्टी होने के अपने दावे के अनुरूप कांग्रेस सबरीमला विवाद में बेलाग ढंग से सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के पक्ष में खड़ी नज़र आती. उससे अपेक्षित यह था कि सियासी फायदे-नुकसान की गणनाओं से उठ कर वह इस मुद्दे पर प्रदेश की वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एलडीएफ) सरकार को अपना बेलाग समर्थन देती.

पिनरायी विजयन की एलडीएफ सरकार की इस बात के लिए तारीफ़ होनी चाहिए कि उसने इस मुद्दे पर मजबूती से संवैधानिक भावना के अनुरूप रुख लिया है. उसने न सिर्फ सुप्रीम कोर्ट में सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का पक्ष लिया, बल्कि कोर्ट का फैसला आने के बाद से महिला प्रवेश विरोधी आंदोलन से दृढ़ संकल्प के साथ निपट रही है.

आज भारत में आधुनिक मूल्यों के पक्ष में खड़े होने के ऐसे ही पक्के इरादे की जरूरत है, ताकि समता आधारित समाज का रास्ता तैयार हो सके.

आज के दौर में ऐसी मान्यताओं के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए, जो अवैज्ञानिक पूर्वाग्रहों और भेदभाव पर आधारित हों. “आस्था” का दायरा व्यक्तिगत या घरेलू जीवन तक सीमित होना चाहिए. सार्वजनिक स्थलों पर इसे थोपना सिरे से लोकतंत्र के खिलाफ़ है.

मासिक धर्म की उम्र वाली जो महिलाएं अपनी “आस्था” के तहत मंदिर में ना जाना चाहें, उन्हें बेशक ऐसा करने का हक है. लेकिन जो महिलाएं मानती हैं कि मासिक धर्म महज एक शारीरिक क्रिया है जिससे शरीर “अपवित्र” नहीं होता, उन्हें मंदिर में पूजा-अर्चना करने से रोकना अनुचित है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ऐसा करना अब गैर-कानूनी भी है.

जो राजनीतिक पार्टियां संवैधानिक लोकतंत्र का हिस्सा हैं, उनसे यह न्यूनतम अपेक्षा रहती है कि वे कानून और संविधान की मूलभूत भावनाओं का पालन करेंगी. दुर्भाग्यपूर्ण है कि केरल में ऐसी अपेक्षाओं की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं.


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