मरे जानवर उठाने से मना करने के चलते गुजरात में दलितों का सामाजिक बहिष्कार


gujrat's dalit refused to pick carcasses, want equal treatment

  फाइल फोटो

गुजरात में अकसर दलितों के साथ भेदभाव की खबरें आती रही हैं. ऊना में हुई घटना के बाद ऐसी घटनाएं पूरे देश में चर्चा का विषय बनीं. इस समुदाय में इनको लेकर काफी गुस्सा और प्रतिरोध देखने को मिला. इसके चलते गुजरात के कुछ गांवों में दलित समुदाय ने जानवरों के शवों को उठाने जैसे काम करना बंद कर दिया है. इससे उन्हें सवर्णों से भारी विरोध का सामना भी करना पड़ रहा है. यहां तक कि सामाजिक रूप से उनका बहिष्कार भी कर दिया गया.

ऐसे ही एक गांव ल्होर के रहने वाले विक्रम ठाकोर कहते हैं कि छह महीने पहले उनकी एक भैंस मर गई थी. वे उसके शव को टैक्टर से लेकर गांव से बाहर डालने गए. विक्रम कहते हैं, “हमें इसे खुद ही करना पड़ता है, करीब दो साल पहले गांव के दलितों ने मरे हुए जानवरों को उठाना बंद कर दिया. कुछ महीने पहले एक मरे कुत्ते को मैंने गांव के बाहर डाला.”

ल्होर के दलितों ने गांव के ऊपरी जाति के लोगों पर भेदभाव का आरोप लगाते हुए मरे जानवरों को उठाने जैसे काम बंद करने का फैसला लिया. दलित कहते हैं कि ये रूढ़िवादी काम गंदे और बिना पैसे वाले हैं और उनपर थोपे गए हैं.

दलितों के इस तरह के फैसले ऊपरी जाति के लोगों को पसंद नहीं आ रहे हैं. गांव के दलितों का कहना है कि आठ मई को गांव के एक दलित परिवार की शादी में दूल्हा घोड़े पर सवार होकर आया, जिसका गांव की ऊपरी जाति के लोगों ने विरोध किया. इसके बाद सामाजिक रूप से उनका बहिष्कार कर दिया गया.

पुलिस ने इस मामले में सरपंच सहित पांच लोगों के खिलाफ प्राथमिकी भी दर्ज की है.

लहोर गांव में ठाकोर जाति की जनसंख्या करीब 1,600 है. इन लोगों का कहना है कि दलित मरे जानवरों को नहीं उठा रहे हैं, ये बात इनको पसंद नहीं आ रही है, लेकिन ऐसा करने के लिए इन लोगों ने दलितों पर किसी तरह का दबाव नहीं बनाया है. ये लोग इस मामले को सामाजिक बहिष्कार का कारण भी मानने से इनकार करते हैं.

लेकिन गाव के ज्यादातर दलित इस बारे में कुछ और सोचते हैं. गांव के एक दलित मुकेश श्रीमाली कहते हैं, “हमारे पूर्वज मरे हुए जानवरों को उठाने का काम करते थे और ये काम सैकड़ों साल तक चलता रहा. लंबे समय ये काम हम पर थोप दिया गया है बदले में हमें इसके लिए कोई मेहनताना भी नहीं मिलता.”

वे कहते हैं, “ये काम गंदा है इसलिए कोई इसे अनिवार्य रूप से नहीं करना चाहता. हमारे लोगों में कम से कम चार-पांच लोग डॉक्टर हैं. प्रोफेसर भी हैं, इनमें से एक हेड कांस्टेबल है और समुदाय में एक व्यक्ति वकील भी है…हमारी नई पीढ़ी ये काम करने के तैयार नहीं है. इसलिए हमारे नेताओं ने मरे हुए जानवरों को उठाने से मना कर दिया.”

मेहुल वो दलित दूल्हे हैं, जिनकी शादी के बाद दलितों को सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ रहा है. मेहुल के दादा फीखाभारी परमार कहते हैं, “हम इस काम को लंबे समय से सामाजिक मजबूरी के तौर पर ढोते आ रहे हैं. मैंने मरे हुए जानवर उठाए हैं. अगर हम ये काम नहीं करते तो गैर दलित हमारे साथ बहुत बुरा व्यवहार करते.”

दलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाले विश्णु सेन्वा कहते हैं, “धार्मिक कार्यक्रमों के दौरान दलितों को हमेशा अलग बैठने को कहा जाता है. हमने जब कहा कि ये सब एक साथ मिलकर होना चाहिए, उन्होंने इसे साफ तौर इनकार कर दिया. यहां तक की गांव का नाई भी गैर दलितों के दबाव के चलते हमारे बाल काटने से इनकार कर देता है.”

हालांकि गांव के ठाकोर समुदाय के लोग इन आरोपों से इनकार करते हैं. उनका कहना है कि शव फेंकना ना फेंकना दलितों की मर्जी के ऊपर है उन पर किसी तरह का दबाव नहीं बनाया जा रहा. प्रहलाद ठाकोर कहते हैं, “जहां तक सामाजिक बहिष्कार की बात है तो ये सच नहीं है.”

लेकिन जब ठाकोर समुदाय की महिलाओं से बात की गई तो पहचान छिपाने की शर्त पर इन्होंने कुछ और बात ही कही. इन महिलाओं में असंतोष साफ तौर पर देखा जा सकता था.

एक महिला ने कहा, “हम ऐसा कैसे होने दे सकते हैं.” दूसरी महिला ने कहा, “हमें अपने मरे जानवर खुद ही उठाने पड़ते हैं, या फिर इसके लिए कोई दूसरा बंदोबस्त करना पड़ता है. अगर दलित ऐसा नहीं करेंगे तो हम क्या कर सकते हैं?”

सामाजिक कार्यकर्ता मार्टिन मैक्वान कहते हैं कि ल्होर एकमात्र ऐसा गांव नहीं है जहां दलितों ने मरे जानवर उठाने से मना कर दिया है. वे कहते हैं, “ऊना की घटना के बाद मैंने इस बारे में एक अध्ययन किया है, जिसमें सामने आया है कि करीब 30 से ज्यादा गांवों में दलित समुदाय ने मरे हुए जानवरों को उठाने से मना कर दिया है.”

इससे एक बात तो साफ है कि दलित युवा ने किसी भी हालत में समझौता नहीं करने वाले हैं.


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