पश्चिम बंगाल: क्या बीजेपी भेद पाएगी ममता का किला?


mamta banerjee agrees to live coverage of her meeting with agitating doctors

 

नंदीग्राम मामले के बाद पश्चिम बंगाल की राजनीति में वामपंथियों को शिकस्त देकर सत्ता पर काबिज हुई ममता बनर्जी बीजेपी के भारत विजय अभियान में सबसे बड़ी बाधक हैं. इस बार अमित शाह ने मिशन-23 की बात कही है. यानी पश्चिम बंगाल की 42 लोकसभा सीटों में से 23 सीटों पर जीत का टारगेट दिया गया है. वहीं ममता बनर्जी की चुनौती इस बार यह है कि उसे न केवल अपने 34 सीटों पर कब्जा बरकरार रखना है बल्कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी की बन रही पैठ की सभी संभावनाओं को खत्म करना है.

उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड फतह के बाद पश्चिम बंगाल ही वह राज्य है जहां बीजेपी को अबतक अपेक्षित सफलता नहीं मिली है. पिछली बार यानी 2014 में मोदी लहर के बावजूद बीजेपी केवल दो सीटों पर जीत सकी. इनमें से एक आसनसोल से बाबुल सुप्रियो और दूसरे दार्जीलिंग सीट से एसएस आहलूवालिया रहे.

मोदी-शाह की राह में ममता

पिछली बार जब बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में पैर जमाने की कोशिश की तब इसकी दो वजहें रहीं. पहली वजह यह कि ममता के कारण वामपंथी दलों के पैर उखड़ रहे थे और कांग्रेस भी अपना जनाधार खोती जा रही थी. बीजेपी की नजर वामपंथी और कांग्रेस के समर्थकों पर थी. सबकुछ ठीक चल रहा था. नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने पश्चिम बंगाल में ताबड़तोड़ 25 चुनावी रैलियां की. लेकिन बीच में आयी ममता बनर्जी ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया. इस चुनाव में तृणमूल कांग्रेस 39.05 प्रतिशत वोट मिले और वह सबसे बड़ी पार्टी बनी. उसके मतों में +8.13 प्रतिशत की वृद्धि हुई. सीटों की संख्या 2009 में 19 थी जो 2014 में बढ़कर 34 हो गयी. दूसरे स्थान पर तब सीपीआई व अन्य वामपंथी पार्टियां रहीं. हालांकि उन्हें दो सीटें मिलीं. लेकिन मतों में उनकी हिस्सेदारी 29.71 प्रतिशत थी. इससे पहले 2009 में वामपंथी दलों के पास 15 सीटें थीं.

2014 में हार के बावजूद बीजेपी का हौसला बढ़ा

बीजेपी को उम्मीद थी कि वह कम से कम दहाई का आंकड़ा जरूर पार करेगी. लेकिन उसे केवल दो सीटें मिलीं. लेकिन भाजपा के लिए यह प्रस्थान बिंदू साबित हुआ. उसने पश्चिम बंगाल की सभी 42 सीटों पर उम्मीदवार उतारे और कुल मतों में 17.02 प्रतिशत वोट हासिल किए. बीजेपी के मनोबल बढ़ने की एक वजह यह भी रही कि उसने कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया. हालांकि कांग्रेस चार सीटें जीतने में तब कामयाब रही. परंतु कुल वोटों में उसकी हिस्सेदारी में -3.85% की कमी आयी और यह घटकर केवल 9.58 प्रतिशत रह गयी.

इस बार का दंगल

2014 में ममता बनर्जी से पहली भिड़ंत में सम्मानजनक पराजय के बाद नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने पश्चिम बंगाल को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाए रखा. फिर चाहे वह चिटफंड घोटाले को लेकर ममता बनर्जी सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति हो या फिर हिंदुत्व के एजेंडे को फैलाने की है. बांग्लादेशी मुसलमानों को लेकर बीजेपी ने एक के बाद एक ममता बनर्जी पर कई हमले किए.

लेकिन ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार से 36 का रिश्ता न सिर्फ बनाया बल्कि पूरी ताकत के साथ उसे निभाया भी है. उन्होंने खुद को नरेंद्र मोदी-अमित शाह के समक्ष सबसे मजबूत नेता के रूप में खुद को साबित किया. दूसरी ओर बीजेपी की परेशानियां घटने के बजाय कम नहीं हुईं हैं. तृणमूल कांग्रेस से कभी सांसद रहे मुकुल रॉय चिटफंट घोटाले में फंसने के बाद बीजेपी में चले गए और इन दिनों पश्चिम बंगाल की कमान अप्रत्यक्ष रूप से उनके हाथों में है. उनकी विश्वसनीयता बंगाल की जनता में संदिग्ध है. बीजेपी की दूसरी सबसे बड‍़ी परेशानी योग्य उम्मीदवारों का अभाव है. यही वजह है कि बीजेपी को उम्मीदवार उधार में दूसरे दलों से लेने पड़े हैं. यह नारेटिव भी बंगाल में बीजेपी के मिशन-23 में रोड़ा बन सकती है.

बंगालियों को राष्ट्रवाद से लुभाने की कवायद

बीजेपी ने ममता बनर्जी को हराने के लिए राष्ट्रवाद को हथियार बनाया है. हालांकि यही हथियार वे पूरे देश में इस्तेमाल कर रहे हैं. लेकिन पश्चिम बंगाल के उन इलाकों जहां मुसलमानों की संख्या निर्णायक है, बीजेपी हिंदुत्व और राष्ट्रवाद का ढोल अधिक पीट रही है. पार्टी के तमाम नेता इसके साथ नागरिकता (संशोधन) अधिनियम और एनआरसी का मुद्दा भी उठा रहे हैं. उनकी निगाहें देश के विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से आकर सीमावर्ती इलाकों में बसने वाले हिंदुओं पर हैं. वे यह भी कह रहे हैं कि बंगाल में भी देर-सवेर एनआरसी लागू कर घुसपैठियों को निकाल बाहर किया जाएगा.

बहरहाल, तमाम कवायदों के बावजूद पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी खूंटा गाड़कर बैठी हैं. उन्होंने 41 प्रतिशत टिकट महिलाओं को देकर देश के सभी राजनीतिक दलों के समक्ष एक नजीर पेश किया है. हालांकि पश्चिम बंगाल में भाजपा के बढ़ते प्रभाव से वह नावाकिफ तो बिल्कुल भी नहीं हैं. लिहाजा यह लोकसभा चुनाव उनके लिए खास बन गया है. जीत मिली तो इस बार कब्जा न केवल बंगाल पर बरकरार रहेगा बल्कि दिल्ली की गद्दी पर भी दावेदारी बढ़ेगी. पराजय का मतलब पश्चिम बंगाल लाल झंडों से मुक्त होने के बाद भगवा झंडों से पहचाना जाएगा.


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