बेगूसराय किधर?


is kanhaiya kumar winning from begusarai

 

17वीं लोकसभा के लिए 2019 में हो रहा चुनाव कई अर्थों में महत्वपूर्ण हो सकता है. उन महत्वपूर्ण बिन्दुओं में एक सबसे चर्चित बात लोकसभा की बेगूसराय सीट पर चल रहा घमासान है और लोकसभा की बेगूसराय सीट पर ही हम यहां बातें करेंगे.

बेगूसराय, गंगा नदी के किनारे स्थित बिहार का एक छोटा जिला है. सांस्कृतिक रूप में मिथिला की छाप यहां देखी जा सकती है. राष्ट्रकवि दिनकर की यह जन्मभूमि है. विख्यात इतिहासकार राम शरण शर्मा का संबंध भी इसी धरती से है. बिहार से अलग झारखंड राज्य के बन जाने के बाद औद्योगिक नजरिये से यह बिहार के उन्नत जिलों में गिना जाता है. खेती के लिए पूरे बेगूसराय में उत्तम उर्वर भूमि उपलब्ध है. लेकिन इनमें से कोई विशेषता ऐसी नहीं है जो इसे राष्ट्रीय स्तर पर लोकसभा चुनाव के दरम्यान निरंतर चर्चा की विषय वस्तु बनाए रखे.

वर्तमान लोकसभा चुनाव में देश-दुनिया के सामने बेगूसराय सबसे चर्चित सीट बन गया है और चर्चा के केन्द्र में वह अपने नौजवान उम्मीदवार कन्हैया के कारण है.  29 अप्रैल 2019 को चौथे चरण में बेगूसराय में मतदान होना है और लगता नहीं है कि कम-से-कम मतदान के दिन तक चर्चा के तूफान से बेगूसराय वापस आ पाएगा.

साल 2008 में परिसीमन आयोग की अनुशंसा के अनुरूप लोकसभा और विधानसभा की क्षेत्रीय सीमाओं का फिर से निर्धारण किया गया. नए सीमांकन के अनुरूप पहला लोकसभा चुनाव 2009 में संपन्न हुआ.

साल 2009 के लोकसभा चुनाव से पूर्व की बेगूसराय संसदीय सीट की क्षेत्रीय सीमा अलग थी जबकि वर्तमान सीमा कुछ और है. साल 2009 से पहले बेगूसराय की दो विधानसभा सीटें बेगूसराय और मटिहानी ही इस लोकसभा सीट का अंग हुआ करती थीं. अन्य विधानसभा सीटें जैसे लखीसराय, शेखपुरा, सूर्यगढ़ा दूसरे जिलों में थे. इनके बीच गंगा नदी का विशाल जल क्षेत्र मौजूद था.

साल 2009 के परिसीमन के बाद पूरे बेगूसराय जिले की सातों विधानसभा सीट को मिलाकर एक लोकसभा क्षेत्र बना दिया गया. इस नवसीमांकित लोकसभा सीट पर पहली जीत जनता दल(यूनाइटेड) के डॉक्टर मोनाजिर हसन ने 2009 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(सीपीआई) के उम्मीदवार शत्रुघ्न प्रसाद सिंह को लगभग 40,000 मतों से हराकर दर्ज की थी.

2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के भोला सिंह ने राजद के तनवीर हसन को लगभग 58,000 मतों से पराजित किया. जबकि इस सीट पर सीपीआई के प्रत्याशी राजेन्द्र सिंह दो लाख से कुछ कम मत प्राप्त करके तीसरे स्थान पर रहे.

अब 2019 के लोकसभा का चुनाव सामने है और बेगूसराय सीट पर एक तरफ सीपीआई के उम्मीदवार कन्हैया हैं तो दूसरी तरफ महागठबंधन की तरफ से तनवीर हसन और बीजेपी के गिरिराज सिंह चुनाव मैदान में हैं.

कन्हैया के विरोध में खड़े तनवीर हसन 24 वर्षों तक बिहार विधान मंडल के सदस्य रह चुके हैं. ये बात पहले भी आ चुकी है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में अपने निकटतम प्रतिद्वंदी भोला सिंह(बीजेपी) से वह हार गए थे. जबकि गिरिराज सिंह 2014 में गठित 16वीं लोकसभा में बिहार के नवादा लोकसभा सीट से विजयी घोषित किए गए थे. इससे पूर्व वह बिहार विधान परिषद के सदस्य भी रह चुके हैं.

साल 2019 के लोकसभा चुनाव में जनता दल(यूनाइटेड), भारतीय जनता पार्टी और लोक जनशक्ति पार्टी का बिहार में गठबंधन हुआ और सीटों के बंटवारे में नवादा लोकसभा सीट लोक जनशक्ति पार्टी के हिस्से में आई. अब नवादा के निवर्तमान सांसद गिरिराज सिंह से उनकी पार्टी(बीजेपी) ने बेगूसराय से उन्हें लोकसभा चुनाव लड़ाने का फैसला किया. गिरिराज सिंह, बीजेपी के इस फैसले से खासे व्यथित हुए. मीडिया में उनका यह बयान कि पार्टी ने उन्हें विश्वास में लिए बगैर बेगूसराय से प्रत्याशी बनाने का फैसला लिया, खूब चर्चा में रहा.  बुझे मन से ही सही, गिरिराज सिंह चुनाव लड़ने के लिए बेगूसराय आ गए.

बेगूसराय के निवर्तमान दिवंगत सांसद भोला सिंह नवादा से 2009-14 तक सांसद थे. भोला सिंह के बाद ही गिरिराज सिंह की नवादा सीट से संसद पहुंचने की बारी आई. कहना चाहिए कि नवादा की लोकसभा सीट बीजेपी के प्रभाव क्षेत्र में है और यहां पर गिरिराज सिंह को चुनाव लड़ने से स्वयं बीजेपी ने रोक दिया.

कन्हैया पर बात की जाए तो उनकी पहली पहचान जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष पद पर 2015 में निर्वाचित होने के साथ बनती है. फिर साल 2016 में जेएनयू परिसर में आयोजित एक कार्यक्रम में देश विरोधी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाकर उन्हें दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. इसके बाद पटियाला हाउस कोर्ट परिसर में कन्हैया पर वकीलों के द्वारा जानलेवा हमले की कोशिश और फिर जमानत पर रिहा होना— कन्हैया के संबंध में इतनी बातें राजनीति में रुचि रखने वाला हर व्यक्ति जानता है.

कन्हैया जमानत पर छूटने के बाद से लगातार देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग अवसरों पर अपनी बातें पहुंचाने की निरंतर कोशिशें करते रहें. इस क्रम में कई स्थानों पर स्याही फेंकने, काले झंडे दिखाने और सभा को बाधित करने की घटनाएं भी देखने को मिलीं. ऐसा लगता था कि विरोधी, कन्हैया का हर ‘सांस’ पर विरोध कर रहे हैं मगर कन्हैया किसी तरह उनके आगे हार मानने को तैयार नहीं है.

कन्हैया के भाषणों में यह बात हरदम झलकती रही कि वह जाति, धर्म या क्षेत्र के भावनात्मक मुद्दों के बजाए सामान्य जीवन के बुनियादी सरोकारों को केन्द्र में रखते हैं. टीवी चैनलों के वाद-विवाद कार्यक्रमों में भी उन्होंने बार-बार बेसिर पैर की बातों का सफलतापूर्वक प्रतिकार किया.

इन सबके मिलेजुले प्रभाव से देशभर में कन्हैया के जाननेवाले और समर्थक बढ़ते गए. आज मीडिया के सभी रूपों (सोशल, इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट) में कन्हैया पर बार-बार चर्चा होती रहती है. शायद यही कारण है कि आज जब कन्हैया बेगूसराय से प्रत्याशी हैं तो बेगूसराय की चर्चा बार-बार हो रही है.

ये सही है कि कन्हैया छात्र-राजनीति में सक्रिय रहे लेकिन उनकी ये आकांक्षा कभी नहीं रही कि राजनीति ही करियर विकल्प बने. रोजी-रोजगार का मामला अन्य नौजवानों की तरह कन्हैया के लिए भी था. लेकिन उनपर दर्ज देशद्रोह के मुकदमे ने कन्हैया को उस मोड़ पर खड़ा कर दिया जहां से आगे की राह केवल राजनीति के गलियारों में जाती थी मगर पीछे लौटने की सारी संभावना समाप्त हो गई. अब इसका परिणाम सामने है.

कन्हैया के नौ अप्रैल को नामांकन दाखिल करने के साथ ही जन-समर्थन की जो तस्वीरें विभिन्न मीडिया माध्यमों में सामने आई वो हैरान करनेवाली है.

ये बेगूसराय के सामान्य लोग हैं जो 29 अप्रैल को मतदान करेंगे. ये लोग स्वैच्छिक रूप से कन्हैया के समर्थन में आए थे, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता.

देश से जानी-मानी हस्तियां कन्हैया के चुनाव-प्रचार के लिए स्वेच्छा से बेगूसराय लगातार पहुंचती रहीं. दिल्ली तक केन्द्रित रहने वाला मीडिया भी बेगूसराय के चक्कर लगाकर खुद को धन्य महसूस कर रहा है.

खुद कन्हैया ने भी चुनाव प्रचार में बेगूसराय के दूर-दराज के गांवों तक पहुंचने का सफल प्रयास किया है. क्राउड फंडिंग के जरिए बड़ी आसानी से चुनावी खर्च की अधिकतम सीमा 70 लाख रुपये कन्हैया तक उसके चाहने वालों ने पहुंचा दिए. इसके अतिरिक्त सहायता करने के उदेश्य से किसी ने नाश्ते का प्रबंध कर दिया तो किसी ने अपनी गाड़ी चुनाव प्रचार के लिए दे दी तो किसी ने पूरा घर चुनावी कार्यालय बनाने के लिए दे दिया.

पिछले कुछ वर्षों से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की बेगूसराय जिला इकाई जिस आंतरिक कलह का शिकार थीं, कन्हैया उसे समाप्त करने में सफल रहे हैं. अभी तक कि जो चुनावी तस्वीर उभर कर सामने आ रही है, उसमें कन्हैया चुनावी अभियान में अपने दोनों विरोधियों—मोहम्मद तनवीर हसन और गिरिराज सिंह से काफी आगे दिखाई पड़े हैं. अगर मतदान के दिन तक यही स्थिति बनी रही तो चुनाव परिणाम कन्हैया के पक्ष में भी हो सकता है.

मोहम्मद तनवीर हसन और गिरिराज सिंह, दोनों ही अब साठ वर्ष से अधिक के हो चुके हैं और वरिष्ठ नागरिक की श्रेणी में आते हैं. कन्हैया अभी कोई 30 वर्ष का युवक है.

कन्हैया की यह जीत भारतीय राजनीति में युवा शक्ति के लिए नए द्वार खोलेगी. कन्हैया अगर हार भी जाते हैं, तो भी बिहार विशेषकर बेगूसराय की राजनीति अत्यंत गहराई तक प्रभावित होगी. बेगूसराय में कन्हैया की जीत पूरे भारत में राजनीतिक संदेश के लिहाज से एक ऐतिहासिक जीत होगी.

अंत में कन्हैया को लेकर मीडिया की भूमिका पर कुछ कहना अत्यंत आवश्यक है. वर्तमान चुनाव प्रक्रिया में शामिल होने से पहले और इसके बाद—दोनों स्थितियों में मीडिया के लिए कन्हैया ‘नर्म चारा’ रहा है.

मीडिया के ही एक हिस्से ने उसे देशद्रोही के रूप में प्रचारित किया और आज भी वह इसमें लगा हुआ है. जब कन्हैया को बेगूसराय से सीपीआई ने उम्मीदवार बनाया, उस समय प्रेस कांफ्रेस में एक पत्रकार ने ये सवाल पूछा, “अगर आप भूमिहार नहीं होते तो क्या पार्टी आपको बेगूसराय से टिकट देती.” यही सवाल किसी ने गिरिराज सिंह से तो नहीं पूछा.

अभी कुछ दिन पहले बिलकीस बानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय का जो फैसला आया है, उसे लेकर किसी पत्रकार ने नरेन्द्र मोदी से तो कोई सवाल नहीं किया. हद तो ये है कि चुनावी मौसम में प्रधानमंत्री का गैर राजनीतिक इंटरव्यू फिल्म अभिनेता के साथ चल रहा है और इसे मीडिया का बड़ा हिस्सा बड़े सहज तरीके से ले रहा है.

कन्हैया के साथ मीडियाकर्मियों का जो रवैया रहा है, उसमें सबसे बड़ा कारण उसकी सहज उपलब्धता है. कन्हैया से यह भी अपेक्षा रहती है कि उसके पास उलझाने वाले प्रश्नों का भी सटीक जवाब होगा. शायद एक प्रबुद्ध नागरिक के रूप में कन्हैया की यह सबसे बड़ी सफलता है. उम्मीद की जाती है कि आने वाले दिनों में कन्हैया के प्रति मीडिया के व्यवहार में संतुलन जरूर आएगा.

(लेखक उर्दू के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.)


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