मोदी, मोदी होने की गलतफहमी


More than 200 professors from Delhi University condemned Modi's comment on Rajiv Gandhi

 

बीजेपी की गलतफहमी

बीजेपी के नेता पिछली बार से ज्यादा बड़ी मोदी लहर बता रहे हैं. मतलब हर तरफ मोदी है और कोई नहीं है. न बीजेपी के किसी चेहरे का मतलब है और न विपक्ष के किसी नेता का. लोकसभा का चुनाव मोदी के नाम पर लड़ा जा रहा है. क्या ममता बनर्जी और क्या नवीन पटनायक, किसी का कोई मतलब नहीं है. जो है, सो मोदी है.

खुद प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा है कि सत्ताधारी के पक्ष में लहर चल रही है. लोग इस सरकार को दोबारा चुनने के लिए बावले उतावले हो रहे हैं. ऐसा नैरेटिव पिछले पांच साल में नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने प्रयास करके बनवाया है. प्रचार के जरिए गांव-गांव तक मोदी का चेहरा और उनका नाम पहुंचाया गया है.
तभी आज बीजेपी के नेता दावा कर कर रहे हैं कि इंदिरा गांधी के बाद मोदी पहले नेता हैं, जिनको गांवों, कस्बों और यहां तक कि जंगलों में भी जाना जा रहा है.

केंद्र सरकार की किसी योजना पर मोदी का नाम नहीं है पर प्रचार के जरिए लोगों को बता दिया गया है कि उन्हें जो भी मिल रहा है वह मोदी दे रहा है. प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत लोगों को मिलने वाले घरों को मोदी का घर कहा जा रहा है. रसोई गैस का सिलेंडर मोदी का दिया हुआ है. खाता मोदी का खुलवाया हुआ है. शौचालय मोदी का बनवाया हुआ है. सर्जिल स्ट्राइक करने वाली सेना मोदी की सेना है और एयर स्ट्राइक करने वाली वायु सेना मोदी की वायु सेना है. इसलिए बीजेपी के नेता कह रहे हैं कि लोग मोदी को वोट देंगे.

खुद मोदी ने अपनी सभाओं में कहा है कि वे उम्मीदवार नहीं देखें, सीधे उनको वोट दें. अब तो बीजेपी के उम्मीदवार खुद भी मोदी के नाम पर ही वोट मांग रहे हैं. लोग सांसदों से पांच साल का हिसाब पूछ रहे हैं तो सांसद मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के नाम पर वोट मांग रहे हैं ताकि देश सुरक्षित रहे.

झारखंड में बीजेपी के चुनाव अभियान से बहुत करीब से जुड़े एक नेता ने कहा कि यह चुनाव अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव की तरह हो गया है. झारखंड प्रदेश के नेताओं, मंत्रियों का दावा है कि मुख्यमंत्री रघुबर दास की सरकार ने बहुत काम किया है. पांच साल लगातार सरकार काम करती रही है. पर वहां भी सरकार का कोई आदमी अपने काम पर वोट नहीं मांग रहा है.

राज्य सरकार के काम की बजाय मोदी के नाम पर वोट मांगा जा रहा है. हर उम्मीदवार मोदी हो गया है. सहयोगी पार्टियों का मोदी के सामने संपूर्ण समर्पण है. नीतीश कुमार जैसा मजबूत प्रादेशिक क्षत्रप मोदीनामी ओढ़ कर मंच पर बैठा रह रहा है यह मान कर मोदी के नाम से चुनावी वैतरणी पार लग जाएगी.

मोदी नाम के इस जाप से चुनाव जीत जाने की सोच बीजेपी की सबसे बड़ी गलतफहमी साबित होने वाली है. खासकर अगले तीन चरण की बची हुई 169 सीटों पर. इन 169 सीटों में से 116 सीटें बीजेपी और उसकी सहयोगी पार्टियों की हैं. उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड की 73 सीटें हैं. मध्य प्रदेश की ज्यादातर सीटें इन तीन चरणों में हैं और राजस्थान की भी बची हुई 12 सीटों पर मतदान पांचवें चरण में होना है.

पर इन पांचों राज्यों में मोदी के नाम का हल्ला चाहे जैसा भी हो, मतदान दूसरे फैक्टर पर डाले जा रहे हैं. उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा और रालोद के गठबंधन परोक्ष रूप से कांग्रेस की मदद के कारण बीजेपी पर भारी पड़ रहा है. पांचवें चरण में उत्तर प्रदेश की जिन सीटों पर सोमवार को मतदान है उनमें सात सीटों पर सपा और बसपा का साझा वोट बीजेपी से ज्यादा है और दो सीटें रायबरेली व अमेठी की हैं. यानी नौ सीटों पर विपक्ष आगे है और बीजेपी की लड़ाई पांच सीटों पर सिमटी है.

उत्तर प्रदेश की तरह बिहार और झारखंड में भी विपक्ष के गठबंधन का साझा वोट बीजेपी से ज्यादा हो रहा है और मध्य प्रदेश व राजस्थान में छह महीने पहले बनी कांग्रेस की सरकारों के कारण मुकाबला कांटे का बना है.

चारों तरफ मोदी, मोदी के हल्ले का एक नुकसान यह हो रहा है कि बीजेपी की पूरी मशीनरी शिथिल हुई है. ध्यान रहे मोदी को पिछला चुनाव बीजेपी ने लड़वाया था और इस बार मोदी बीजेपी को लड़वा रहे हैं.

असल में मोदी का यह प्रचार उनके सोशल मीडिया के लंगूरों और शहरी व कस्बाई मध्य वर्ग के सवर्णों ने फैलाया है. जमीनी हकीकत इससे कोसों दूर है.

मोदी हवा के पांच झूठ

पहला झूठ की पश्चिम बंगाल में बीजेपी को कम से कम 14 और अधिकतम 20 सीटे मिलेंगी. दूसरा झूठ है कि ओडिशा में बीजेपी को 12 से 16 सीट मिलेंगी. तीसरा झूठ है कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी की कम से कम पचास सीट हैं. चौथा झूठ है कि केरल, तमिलनाड़ु, तेलंगाना व कर्नाटक के चार राज्यों में से हर में बीजेपी को एक से तीन सीटों का फायदा है.

पांचवा झूठ है राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र के चारों राज्यों में नरेंद्र मोदी की 2014 से बड़ी आंधी है और 2014 जितनी ही सीटे बीजेपी को मिलेंगी. इन पांच झूठ पर फिर मोदी भक्तों की थीसिस है कि बीजेपी 2014 से भी ज्यादा 300 सीट जीतेगी.

बहरहाल अब एक-एक कर इन झूठ पर विचार करें. पश्चिम बंगाल में चार चरण का मतदान हो चुका है. अपना मानना है कि वहा 82-83 फीसदी औसत मतदान प्रमाण है कि ममता बनर्जी बीजेपी को दो-चार सीट भी जीतने नहीं दे रही हैं. यदि मतदान कम होता. 65 फीसदी के औसत पर होता तो बीजेपी 2014 के लोकसभा चुनाव के अपने 17 फीसदी वोट को तृणमूल कांग्रेस के 45 फीसदी से ऊपर तभी कर सकती है जब मतदान 60 फीसदी के आसपास होता.

इस बात को समझना चाहिए कि 2014 में पश्चिम बंगाल की 42 में से 31 सीटे ऐसी थी जिस पर जीत का अंतर तीसरी पार्टी को मिले वोट से कम था. मतलब जैसे अलीद्वारपुर में तृणमूल कांग्रेस सिर्फ 29.6 फीसदी वोट से जीती. नबंर दो पर लेफ्ट फ्रंट की आरएसपी को 27.7 फीसदी तो बीजेपी को 27.4 फीसदी वोट मिले. मतलब कांटे की टक्कर में तब जैसे तैसे तृणमूल जीती थी. तब भी मतदान भारी मतलब 83.2 फीसदी हुआ.

सो बीजेपी और अमित शाह ने इस बार हल्ला बनाया कि लेफ्ट फ्रंट और आरएसपी अब खत्म है तो वामपंथियों का वोट कम होगा और वह वोट बीजेपी को मिलेगा. लेफ्ट के 2014 में जो 3 लाख 40 हजार वोट मिले. वह या तो पड़ेगे नहीं और यदि डले तो बीजेपी को मिलेंगे. अपना माननां है कि लेफ्ट के वोट कुछ लेफ्ट को ही और बाकि तृणमूल कांग्रेस को गए होंगे. बीजेपी को कतई नहीं मिले होंगे.

फिर भी सोचे कि इस सीट पर वापिस 2014 जैसे रिकार्ड तोड़ मतदान में 2014 के लेफ्ट वोटों में से कितने बीजेपी को जा सकते हैं? वे यदि पांच फीसदी बीजेपी को गए तो तय मानें कि 10-15 फीसदी तृणमूल कांग्रेस को जाएंगे. लेफ्ट उम्मीदवार का इस बार वोट घटेगा लेकिन उसका बिखरा वोट तृणमूल को ज्यादा जाएगा.

मतदान जब 2014 वाला ही हुआ है और लेफ्ट कमजोर बना है तो उसके वोट तृणमूल का वोट फीसदी बढ़ाएंगे न कि बीजेपी का. तभी अपना मानना है कि बीजेपी नई सीटे जीतने के बजाय उलटे 2014 में जीती आसनसोल, दार्जिलिंग जैसी सीटे भी हार सकती है. आसनसोल की सीट पर बीजेपी के बाबुल सुप्रियो 36.8 (4.19 लाख वोट ले कर 70 हजार वोटो के अंतर से) फीसदी वोट पर जीते थे.

तब नंबर दो पर तृणमूल उम्मीदवार को साढ़े तीन लाख (30.6 फीसदी) व सीपीएम उम्मीदवार को 2.55 लाख वोट मतलब 22.4 फीसदी वोट मिले थे. सीपीएम अब हाशिए पर है. ममता बनर्जी ने आसनसोल से बीजेपी को हराने में धुआंधार मेहनत की है और मतदान भी पिछली बार के 77 फीसदी के आसपास हुआ है तो लेफ्ट के बिखरे वोट बीजेपी को हराने के लिए गोलबंद हुए होंगे.

आसनसोल का उदाहरण बीजेपी की सर्वाधिक ठोस व जीती सीट का है. 2014 में बीजेपी ने दो सीटे जीती थी, तीन पर वह नंबर दो थी और 30 सीटों पर नंबर तीन पर. नबंर तीन की पोजीशन वाली सीटों पर उसके वोट बहुत कम दस फीसदी से भी कम थे. वे कैसे 10-15 सीटों पर 40 फीसदी पार हो कर तृणमूल को पछाड़ने वाले हो सकते हैं?

एक और तथ्य नोट कर रखें. 2014 की पीक मोदी आंधी में बंगाल में बीजेपी को कुल 17 फीसदी वोट मिले. लेकिन 2016 में विधानसभा चुनाव हुआ तो बीजेपी का वोट घट कर 10 फीसदी रह गया. उधर लेफ्ट का वोट भी घटा. वह 23 फीसदी वोट से घट कर 20 फीसदी रह गया. लेकिन लेफ्ट, बीजेपी के घाटे का पूरा फायदा तृणमूल को हुआ. उसका 39.8 फीसदी वोट बढ कर 45.6 फीसदी हो गया. दूसरे नंबर पर कांग्रेस को फायदा हुआ. उसका वोट 9.7 फीसदी से बढ़ कर 12.4 फीसदी वोट हो गया. मतलब लेफ्ट का घटना तृणमूल और कांग्रेस का फायदा है न कि बीजेपी का.

अब बीजेपी के ओडिशा झूठ पर आए. 2014 में 21 सीट में से बीजेपी ने एक सीट जीती थी. 20 बीजू जनता दल ने. बीजद का वोट 44.8 और बीजेपी का 21.9 फीसदी. तब बीजेपी ने सुदंरगढ की एक सीट 18 हजार वोटो से जीती थी. बाकि बारगढ, कालाहांडी, संबलपुर की तीन सीट पर बीजद के मुकाबले वह 2-3 फीसदी वोटों के अंतर से हारी थी. नबरंगपुर, कोरापुट तब नबंर दो पर कांग्रेस कम वोटों से बीजद से हारी थी.

ध्यान रहे 2014 में मोदी की आंधी थी. तभी बीजेपी को रिकार्ड तोड़ 21.9 फीसदी वोट मिला. और लोकसभा के साथ ही विधानसभा के चुनाव थे तो विधानसभा चुनाव में बीजेपी का वोट कम यानी 18.2 फीसदी था. मतलब लोकसभा और विधानसभा के साथ-साथ हुए चुनाव में बीजेपी के अपने वोट में कोई साढ़े तीन फीसदी वोट का फर्क. इसलिए क्योंकि नवीन पटनायक की लोकप्रियता का कोई मुकाबला नहीं है.

तब विधानसभा चुनाव में बीजेपी के 18.2 फीसदी के मुकाबले कांग्रेस को 26 फीसदी वोट मिले थे. मतलब कांग्रेस ओडिशा में मोदी की आंधी, नवीन पटनायक के जलवे में भी ताकत लिए हुए थी. वजह आदिवासी वोटो में कांग्रेस की जड़े हैं. ओडिशा से सटे झारखंड, छतीसगढ़ में जब आदिवासी-दलित बुरी तरह मोदी राज से खफा हैं तो बीजेपी को नए वोट कहां से मिलेंगे 2014 की पीक आंघी में मध्यवर्ग, बामन, बनियों, पिछड़ों में मोदी को ओडिशा में जो वोट मिला था. वह वापिस नवीन पटनायक को इसलिए जाएंगा क्योंकि साथ में विधानसभा चुनाव हैं.

सो जो मोदीभक्त पश्चिम बंगाल और ओडिशा से बीजेपी को बीस सीट का फायदा बूझ रहे हैं, वह सौ फीसद मुंगेरी लाल का हसीन सपना है.

जहां मोदी हवा वहां भी नहीं 2014 की आंधी!

गुजरात, राजस्थान और मध्यप्रदेश बीजेपी को 100 सीट पार कराने का लांच पैड है. लेकिन गुजरे सप्ताह राजस्थान और मध्यप्रदेश में हुए मतदान के बाद हल्ला ऐसा बनाया गया मानो रिकार्ड मतदान का मतलब बीजेपी की सभी सीटों पर जीत है. ऐसे ही यह हल्ला भी है कि कर्नाटक में 2014 में बीजेपी को 17 सीटे मिली थी तो अब बीस से अधिक सीट हैं.

तमिलनाड़ु, तेलंगाना और केरल में भी बीजेपी को एक-एक, दो-दो सीट मिल सकती हैं. 2014 वाली गारंटीशुदा जीत के गोवा, अरुणाचल और त्रिपुरा में भी बीजेपी को नुकसान होगा तो राजस्थान, मध्यप्रदेश, छतीसगढ़ की 65 सीटों में उसे 23 सीट का नुकसान चलते-चलाते हैं.

2014 में बीजेपी 65 में से 62 सीटे जीती थी. सो इन 65 सीटो में यदि बीस सीट भी बीजेपी के हाथ से निकलती हैं तो इनकी भरपाई किसी और दूसरे राज्य से नहीं होती है. केवल गुजरात है जहां मोदी-शाह को 26 सीटों में से अधिकतम याकि 26 सीट भी मिल सकती हैं.

हालांकि इस प्रदेश के जमीनी आंकड़े, जानकारों में बीजेपी को तीन से छह सीट के बीच नुकसान की बात है. मगर मैं अहमदाबाद के सुधी आला अखबार मालिक संपादक, पत्रकारों की इस फीडबैक को दमदार मानता हूं कि जैसे बंगाल में ममता बनर्जी वोट डलवा रही हैं वैसे मोदी-शाह ने गुजरात में अपने वोट बनवा कर, उन्हें पूरा डलवाने का पुख्ता बंदोबस्त किया है. उसी अनुसार मतदान हुआ तो गुजरात में शत-फीसदी सीटे बीजेपी की हो सकती है.

लेकिन राजस्थान, मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारे होने से बीजेपी को नुकसान हो रहा है. मध्यप्रदेश की 6 और राजस्थान की 13 सीटों के मतदान के बाद मिली फीडबैक का सार यही है कि प्रदेश कांग्रेस नेताओं, मंत्रियों, विधायकों और कार्यकर्ताओं ने दम लगा कर चुनाव लड़ा.

नोट रखें कि मध्य प्रदेश की छह सीटों में से बीजेपी के लिए अकेली एक सीट जबलपुर सुरक्षित लग रही है तो छिंदवाड़ा, सीधी कांग्रेस के लिए और बालाघाट, मंडला, शहडौल और सीधी में कांटे की टक्कर. कांग्रेस की यदि सरकार नहीं होती तो निश्चित तौर पर मध्य प्रदेश और राजस्थान में बीजेपी के लिए एकतरफा 2014 जैसा चुनाव होता. इसलिए इन दो राज्यों में कांग्रेस को 12-15-20 सीट में जितनी भी सीट मिले वह सत्ता बल और कांग्रेस में करो-मरों के जुनून से होगा. ऐसा होना बीजेपी के लिए 23 मई को खासा नुकसान है.
मतलब ले दे कर केवल गुजरात में बीजेपी के लिए 2014 के करीब का आंकड़ा बनता लगता है.

विपक्ष का चेहरा नहीं होने से फर्क नहीं

बीजेपी की एक और बड़ी गलतफहमी यह है कि विपक्ष के पास चेहरा नहीं है. बीजेपी समर्थक हर जगह यहीं बात कह रहे हैं कि मोदी को नहीं दें तो क्या राहुल गांधी को वोट कर दें? यह अलग बात है कि अगर ऐसी बात कहने वालों का सर्वेक्षण हो तो पता चलेगा कि यह जुमला बोलने वाले पीढ़ी दर पीढ़ी बीजेपी को ही वोट देते आए हैं.

ऐसा नहीं है कि पहले कांग्रेस को वोट देते थे और अब राहुल गांधी की वजह से कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी को वोट देने लगे हैं. मोदी को नहीं तो क्या राहुल को वोट दें, यह सवाल पूछने वाले सोनिया गांधी के बारे में भी यहीं बात कहते थे. लालू प्रसाद, मायावती या शिबू सोरेन उनके लिए पहले भी अछूत थे और आज भी हैं. इसलिए इनके यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि मोदी नहीं

तो कौन!

हैरानी की बात है कि थोड़े से नेताओं को छोड़ कर बीजेपी के बाकी सारे नेता इस गलतफहमी का शिकार हैं कि मोदी का विकल्प नहीं है. वे टीना फैक्टर यानी देयर इज नो ऑल्टरनेटिव पर यकीन कर रहे हैं. इसी फैक्टर पर यकीन करके प्रमोद महाजन और उनके करीबी नेताओं ने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को 2004 में समय से पहले चुनाव में झोंका था.

तब संघ के स्कूल में पढ़े और एक बड़े पत्रकार ने कहा था कि सीटा यानी सोनिया इज द फैक्टर, इसलिए अटल बिहारी वाजपेयी को कोई चुनौती नहीं है. उसी अंदाज में आज कुछ लोग रीटा यानी राहुल इज द फैक्टर का प्रचार करके बता रहे हैं कि मोदी के सामने कोई चुनौती नहीं है.

बौद्धिक बहस के लिए यह मुद्दा हो सकता है कि मोदी के सामने राहुल हैं. इसलिए कोई चुनौती नहीं है. पर यह थीसिस बुनियादी रूप से गलत है. क्योंकि राहुल कहीं भी सीधे मोदी से नहीं टकरा रहे हैं. राज्यों में भी कांग्रेस के क्षत्रप मुकाबला कर रहे हैं. राजस्थान में अशोक गहलोत, मध्य प्रदेश में कमलनाथ और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल चुनाव लड़ रहे हैं. जमीनी स्तर पर एक एक उम्मीदवार के लिए इनका सिस्टम काम कर रहा है और वोट डलवा रहा है. कर्नाटक में सिद्धरमैया, खड़गे, मोईली आदि चुनाव लड़ रहे हैं.

जहां सीधे मुकाबले में कांग्रेस नहीं है वहां मोदी से प्रादेशिक क्षत्रप चुनाव लड़ रहे हैं. झारखंड में मोदी के सामने हेमंत सोरेन और बाबूलाल मरांडी का चेहरा है तो बिहार में लालू यादव, जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी का चेहरा है. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का चेहरा मोदी के लिए चुनौती है तो महाराष्ट्र में शरद पवार और ओड़िशा में नवीन पटनायक का.

क्या कोई कह सकता है कि तमिलनाडु में एमके स्टालिन के चेहरे के आगे मोदी का चेहरा भारी पड़ा है या आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू और जगन मोहन रेड्डी का चेहरा मोदी के चेहरे से कमजोर पड़ा है? क्या तेलंगाना में मोदी का चेहरा बीजेपी को एक भी सीट जीता रहा है? उत्तर प्रदेश में तमाम प्रचार के बावजूद मायावती और अखिलेश का चेहरा मोदी पर भारी पड़ रहा है.

सो, विपक्ष का चेहरा नहीं होना कोई चुनावी मुद्दा नहीं है. उलटे बीजेपी के इस प्रचार ने विपक्ष की मदद की है.

साभार- नया इंडिया


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