आर्टिकल 370 पर क्या थी आंबेडकर की राय?

कश्मीर पर मायावती ने अंबेडकर का गलत संदर्भ दिया


ambedakars book anhilation of caste is prelude to concept of modern india

 

कश्मीर मामले को लेकर यह भ्रम फैलाया गया है कि अगर बाबा साहब जीवित होते तो अनुच्छेद 370 पर बीजेपी सरकार के रुख का समर्थन करते. इसके पीछे आरएसएस और बीजेपी की मंशा एक तीर से दो निशाने लगाने की है. दलित को हिंदुत्ववाद के झांसे में लाया जाए और कश्मीर पर वर्तमान सरकार की असंवैधानिक नीति को व्यापक जमीन मुहैया कराई जा सके.

विडंबना है कि आरएसएस और बीजेपी की इसी किलेबंदी के शिकार खुद को दलित राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा मानने वाली मायावती भी हो गईं. कश्मीर और अनुच्छेद 370 मामले पर मायावती ने वही किया जो हिंदूवादी ताकतें अब तक चाहती रही हैं. उनकी पहली राजनीतिक गलती यह रही कि जब बीजेपी सरकार नियम-कायदों को ताक पर रख अनुच्छेद 370 को बेअसर कर रही थी, मायावती ने खुले तौर पर इसका समर्थन किया. बाद में अपनी भूल पर पैबंद चढ़ाने के लिए बाबा साहब के विचारों को भ्रामक तथ्य के तौर पर पेश किया.

दरअसल, विपक्षी दलों की कश्मीर यात्रा को रोके जाने पर हालिया विवाद को लेकर मायावती ने ट्वीट किया, “बाबा साहब भीमराव आंबेडकर समानता, एकता व अखंडता के पक्षधर रहे हैं इसलिए वे राज्य में अलग से अनुच्छेद 370 का प्रावधान करने के पक्ष में कतई नहीं थे. इसी वजह से बीएसपी ने संसद में अनुच्छेद 370 को हटाए जाने का समर्थन किया.”

मायावती के इस कथन का ताल्लुक बाबा साहब की रचना या भाषण से तो कतई नहीं है लेकिन आरएसएस के मुख पत्र ऑर्गेनाइजर में छपे एक लेख से जरूर है. 2014 के दीपावली अंक में इस पत्रिका ने कश्मीर पर बलराज मधोक का एक लेख छापा था. लेख में आंबेडकर और शेख अब्दुल्ला संवाद के हवाले से यह तर्क स्थापित करने की कोशिश की गई है कि बाबा साहब कश्मीर में अनुच्छेद 370 लागू करने के खिलाफ थे. इस प्रोपेगंडा को मीडिया के सहारे प्लेग की तरह फैलाया गया. इसी क्रम में देश के उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने बाबा साहब के विचारों का गलत विश्लेषण प्रस्तुत कर प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार में लेख भी लिखा. हालांकि वेलिवडा वेबसाइट के हवाले से दलित चिंतक ने उनके तर्क का खंडन किया है. इस टिप्पणी के साथ मायावती उसी आयातित विचार के साथ कश्मीर से विशेषाधिकार छीने जाने के पक्ष में खड़ी हैं जिन्हें आंबेडकर भारत के निर्माण में एक बड़ी बाधा के रूप में देखते थे.

मूल दस्तावेज गवाह है कि आंबेडकर 370 के खिलाफ नहीं बल्कि जनमत संग्रह के पक्षधर थे. महाराष्ट्र सरकार की ओर से प्रकाशित आंबेडकर के भाषण और रचनाओं के संकलन में भी यह जिक्र नहीं है कि बाबा साहब कश्मीर में अनुच्छेद 370 लागू करने के खिलाफ थे. इस संकलन के खंड 14 के दूसरे भाग में आंबेडकर कहते हैं, “मेरे विचार से असली मुद्दा यह नहीं है कि सही कौन है बल्कि यह कि सही क्या है. और इसे यदि मूल सवाल के तौर पर लें तो मेरा विचार हमेशा से यही रहा है कि कश्मीर का विभाजन ही सही समाधान है. हिंदू और बौद्ध हिस्से भारत को दे दिए जाए और कश्मीर पाकिस्तान को. कश्मीर के मुस्लिम भाग से हमारा कोई लेना-देना नहीं है. यह कश्मीर के मुसलमानों और पाकिस्तान का मामला है. वे जैसा चाहें, वैसा तय करें. अगर आप चाहें तो इसे तीन भागों में बांट दे, युद्ध विराम क्षेत्र, घाटी और जम्मू-लद्दाख का इलाका और जनमत संग्रह केवल घाटी में कराएं.” यह दस्तावेज भारत सरकार के विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर भी उपलब्ध है (पेज नम्बर-1322).

आरएसएस और उनको कुनबों में बाबा साहब को लेकर प्रतिक्रियावादी विचार को फैलाने की प्रवृति बहुत पहले से रही है. इसे 30 नवंबर 1949 को छपे ऑर्गेनाइजर के संपादकीय से समझा जा सकता है. पत्रिका ने लिखा था, ‘भारत के नए संविधान के बारे में सबसे खराब यह है कि उसमें भारतीयता नहीं है. प्राचीन भारतीय कानूनों, संस्थाओं, नामकरणों और कथन का अंश भी नहीं है.  और न ही प्राचीन भारत की अनोखी घटनाओं का जिक्र है. मनु के कानून, स्पार्टा के लिसगर्स और पर्शिया के सोलोन से बहुत पहले लिखे गए थे. मगर हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए इसका कोई मतलब नहीं है’.

आंबेडकर पूरे जीवन में बहुसंख्यकवाद के खिलाफ रहे. वे इसके खतरे को पहचानते थे. 1942 में ऑल इंडिया शिड्यूल्ड कास्टस फेडरेशन के संविधान में आंबेडकर ने आरएसएस और हिंदू महासभा को प्रतिक्रियावादी संगठन करार दिया था. उन्होंने घोषणा की थी कि ऑल इंडिया शिड्यूल्ड कास्टस फेडरेशन इन प्रतिक्रियावादी ताकतों के साथ कोई गठजोड़ नहीं करेगा. विरोध की इसी कड़ी में बाबा साहब ने मनुस्मृति की प्रतियों को भी जलाया था जिसे हिंदुत्ववाद पर गहरेे आघात के रुप में देखा जाता है. लेकिन त्रासदी है कि आंबेडकर और उनकी प्रेरणा को राजनीतिक मंत्र मानने वालों ने कई अवसर पर उन्हें छला है.

संविधान निर्माण से पहले मुंबई में 6 मई 1945 को ऑल इंडिया शिड्यूल्ड कास्टस फेडरेशन के अधिवेशन को संबोधित करते हुए बाबा साहब ने आत्म निर्णय के सिद्धांत का समर्थन किया था. उन्होंने कहा था, “मैं पाकिस्तान के खिलाफ नहीं हूं. मैं मानता हूं पाकिस्तान की मांग आत्मनिर्णय की मांग से जुड़ी हैं और अब इस पर सवाल खड़ा करने में बहुत देरी हो चुकी है. मैं उन्हें इस सिद्धांत का फायदा देने के लिए तैयार हूं.”

रियासतों के बारे में आंबेडकर 1946 में प्रकाशित किताब ‘पाकिस्तान ऑर पार्टिशन ऑफ इंडिया’ में लिखते हैं, “आत्म निर्णय को लेकर मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा दोनों के ही विचार सही नहीं ठहरते हैं.  इसका अधिकार वहां के लोगों के अलावा और किसी के पास नहीं है. इसका रूप सांस्कृतिक अथवा प्रादेशिक आजादी हो सकता है.”

कश्मीर मामला संयुक्त राष्ट्र में जाने के बाद से ही आंबेडकर जनमत संग्रह पर जोर दे रहे थे. उन्होंने अपनी राय रखते हुए कहा था, “जनमत संग्रह इतिहास में कोई नई घटना नहीं है. हमें इसके लिए थोड़ा पीछे जाने की जरूरत है, जनमत संग्रह के सहारे ऐसी समस्याओं का हल निकाला गया है. प्रथम विश्व युद्ध के बाद ऐसे दो उदाहरणों को देखा जाना चाहिए. अपर सिलेसिया और अलास्का लोरेन जैसे सवाल को जनमत संग्रह से ही सुलझाया जा सका था. मुझे उम्मीद है कि गोपाल स्वामी अयंगर को इसकी जानकारी होगी. हम अपर सिलेसिया और अलास्का लोरेन पर राष्ट्र संघ की पद्धति पर चलते हुए कश्मीर समस्या को हल कर सकते हैं, ताकि रक्षा बजट में 50 करोड़ रुपये से अधिक होने वाले खर्च को अपने लोगों के विकास कार्य में लगाया जा सके.”(पेज नम्बर-849)

हालांकि भारत सरकार कश्मीर में उनकी राय को लागू करने के पक्ष में नहीं थी. जिसके बाद 1951 से आंबेडकर कश्मीर के एक खास हिस्से में जनमत संग्रह कराए जाने की मांग को दोहराते रहे.

इस विचार के साथ 1951 में ऑल इंडिया शिड्यूल्ड कास्टस फेडरेशन के चुनावी घोषणा पत्र में उन्होंने लिखा, “कश्मीर मामले पर कांग्रेस का रवैया ऑल इंडिया शिड्यूल्ड कास्टस फेडरेशन को स्वीकार्य नहीं है. यह भारत और पाकिस्तान के बीच दुश्मनी को लम्बे वक्त तक लेकर जाएगा. ऑल इंडिया शिड्यूल्ड कास्टस फेडरेशन यह मानती है कि दोनों मुल्कों के बीच दोस्ती और सौहार्द का रिश्ता कायम हो. बेहतर नीति के लिहाज से दो विचार अपनाए जाने की जरूरत है. पहला यह कि भारत का बंटवारा हो जाने के बाद से इस पर कोई सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता, बंटवारे के बाद से अब ये दो मुल्क संप्रभू राज्य हैं. दूसरा यह कि कश्मीर का बंटवारा कर दिया जाए. अगर घाटी के लोग चाहें तो वे पाकिस्तान के साथ जा सकते हैं. इसके अलावा जम्मू और लद्दाख भारत में शामिल कर लिए जाएं.

आंबेडकर घाटी में जनमत संग्रह कराने के पक्ष में थे, ताकि वहां के निवासी अपना फैसला खुद कर सकें. उनके लिए राष्ट्रवाद की कोई भौगोलिक सीमा नहीं थी.  वह मानते थे कि “राष्ट्र के संदर्भ में राष्ट्रवाद सामाजिक एकता, अन्तर्राष्ट्रीय बंधुत्व पर आधारित होना चाहिए. यह किसी समुदाय के उत्पीड़न की आजादी नहीं देता है.”

1950 में संविधान सभा की बैठक में कश्मीर के सवाल पर उन्होंने कहा था, “अनुच्छेद 370 के बाद संसद के पास कश्मीर को लेकर कोई भी प्रावधान बनाने का अधिकार नहीं है. अब से कश्मीर के लोगों के प्रतिनिधित्व के सवाल पर जम्मू-कश्मीर सरकार की राय अंतिम है.”


प्रसंगवश