राजनीतिक दलों के पास बाराबंकी की बच्ची के सवालों के जवाब हैं?


Political parties have answers to that girl's questions?

 

कश्मीर से धारा 370 हटाने के शोर-शराबे के बीच उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले से उठी एक स्कूली बच्ची की आवाज को दबा दिया गया. जागरूकता के तहत स्कूल में हुए आयोजन में बच्ची ने एएसपी से सवाल किया, “सर, जैसा आपने कहा कि हमें डरना नहीं चाहिए. हमें आवाज उठानी चाहिए. प्रोटेस्ट करना चाहिए. लेकिन अभी दिखाया गया कि उन्नाव में एक लड़की के साथ बीजेपी नेता ने रेप किया. फिर उसका एक्सीडेंट हो गया. सबको पता है कि वह एक्सीडेंट नहीं है. हम किसी आम इंसान के खिलाफ प्रोटेस्ट कर सकते हैं, लेकिन अगर कोई नेता है अथवा बड़ा इंसान है तो उसके खिलाफ प्रोटेस्ट कैसे करें, अगर प्रोटेस्ट करें भी तो उस पर एक्शन नहीं लिया जाएगा. कुछ होगा नहीं. हमने निर्भया केस देखा. हमने फातिमा केस देखा. ऐसे में अगर हम प्रोटेस्ट करते हैं तो क्या गारंटी है कि हमें इंसाफ मिलेगा. क्या गारंटी है कि प्रोटेस्ट करने के बाद मैं सुरक्षित रहूंगी. क्या गारंटी है कि मेरे साथ कुछ नहीं होगा.”

बच्ची के इस सवाल का एएसपी ने अपने हिसाब से जवाब दिया होगा. लेकिन उस आयोजन में गौर करने वाली बात यह थी कि सवाल एक बच्ची पूछ रही थी, पर उसका साथ तालियों के जरिए तमाम बच्चियां दे रही थीं. वैसे यह सवाल देश की सभी बच्चियों का है. उनके अभिभावकों का है, लेकिन पूछने की हिम्मत कितने जुटा पाते हैं और पूछा भी किससे जाए. वैसे सवाल पूछने की कीमत भी चुकानी पड़ती है, जैसे वह स्कूली बच्ची चुका रही है. उसके अभिभावक इतने दहशतजदा हैं कि उन्होंने बच्ची का स्कूल जाना बंद करा दिया. उन्हें बच्ची के साथ किसी अनहोनी की आशंका ने घेर लिया है.

बाराबंकी जिले की बच्ची जिस उन्नाव वाली घटना को लेकर एएसपी से सवाल कर रही थी, वह घटनाक्रम क्या है, उसे सिलसिलेवार समझने की जरूरत है. ऐसी घिनौनी घटनाओं को अंजाम देने वाले अपराधी लोकतंत्र, संविधान, समाज और रिश्तों पर किस तरह कालिख पोत रहे हैं और राजनीतिक दल उन्हें किस तरह पाल रहे हैं, इसे भी समझना आवश्यक है.

उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के माखी गांव में जून 2017 में बांगरमऊ विधानसभा क्षेत्र से बीजेपी विधायक कुलदीप सिंह सेंगर पर एक नाबालिग लड़की से बलात्कार का आरोप लगा. पीड़िता ने पुलिस सहित हर उस चौखट पर दी जहां से उसे न्याय मिलने की आस थी, लेकिन हर जगह निराशा हाथ लगी. अंततः न्यायालय की शरण लेने के बाद विधायक के खिलाफ मामला कायम हुआ और इसी के साथ उसके परिवार पर कहर बरपने लगा. उसके घर पर छेड़छाड़, गैंगरेप, धमकी और मारपीट की घटना घटी. पिता को उठा लिया गया और जिस थाने में बेटी का मामला नहीं लिखा गया था, उसी में उसे इतना पीटा गया कि जब दूसरे दिन अवैध हथियार रखने के मनगढ़ंत आरोप में जेल भेजा गया तो उसकी मौत हो गई. मामला वापस लेने के लिए आए दिन धमकी और प्रताड़ना जारी रही. आरोपी विधायक की गिरफ्तारी के लिए पीड़िता भाग-दौड़ करते-करते थक गई तो अंत में मुख्यमंत्री आवास के बाहर आत्मदाह करने का प्रयास किया. तब कहीं जाकर मीडिया की नजरें इनायत हुईं और इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मामले का संज्ञान लिया. उसने प्रदेश सरकार और पुलिस की बेशर्मी को निशाने पर लिया तब कहीं जाकर 10 महीने बाद अप्रैल 2018 में विधायक को गिरफ्तार किया गया.

मामले ने तूल पकड़ा तो प्रदेश सरकार ने सीबीआई से जांच कराने का ऐलान कर दिया. पुलिस के नौ जवान पीड़िता और उसके परिवार की सुरक्षा में लगा दिए गए. तय हुआ कि छह जवान घर पर रहेंगे और तीन पीड़िता के साथ. पीड़िता के बड़े चाचा की पहले ही हत्या हो चुकी थी, जिसका आरोप भी विधायक कुलदीप सिंह सेंगर पर लगा था. छोटे चाचा भी एक पुराने मामले में जेल पहुंचा दिए गए. गवाह भी प्रभावित किए जाते रहे. सब अपनी गति से चल रहा था कि इसी बीच जेल में बंद चाचा से मिलने के लिए पीड़िता अपनी चाची (बलात्कार मामले में एक गवाह), मौसी और वकील के साथ रायबरेली जेल जा रही थी. रास्ते में एक ट्रक ने उनकी कार को टक्कर मार दी, जिसमें चाची और मौसी की मौत हो गई वहीं पीड़िता और उसका वकील आईसीयू में जीवन और मौत से जंग लड़ रहा है.

घटना के बाद आरोप लगा कि यह सड़क हादसा नहीं बल्कि सोची समझी साजिश है. हालांकि उत्तर प्रदेश पुलिस के एडीजी राजीव कृष्ण उसे हादसा बताते रहे. उन्होंने जान-बूझकर इन बातों को नजरअंदाज किया कि ट्रक बिना नम्बर प्लेट क्यों था. नम्बर प्लेट पर काली ग्रीस क्यों लगी थी. लंबी दूरी वाले राजमार्ग पर क्या कोई देखने वाला नहीं था. ट्रक गलत दिशा में क्यों था.

इतना सब होने के बाद भी विधायक का जलवा ऐसा कि उस पर हाथ डालने की हिम्मत न मुख्यमंत्री जुटा पाए और न पार्टी संगठन. पुलिस की क्या मजाल कि उसके खिलाफ एक शब्द बोले. इसी कारण विधायक के गुर्गों से मिल रही धमकियों के मद्देनजर पीड़िता ने 33 बार पुलिस को पत्र लिखकर हमले की आशंका व्यक्त की तो हर बार पुलिस ने उसकी शिकायत यह कहकर खारिज कर दी कि आरोपी विधायक तो जेल में बंद है. हमला कौन करेगा?

परेशान हाल पीड़िता ने आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर पीड़ा बयान की तो वह पत्र उन तक पहुंचा नहीं. उन्हें सड़क हादसे के बाद इसकी जानकारी अखबारों के जरिए हुई. यह भी राज खुला कि पीड़िता की एक याचिका पर अदालत ने सीबीआई सहित 15 पक्षकारों को नोटिस जारी करने के आदेश दिए थे, लेकिन रजिस्ट्री दफ्तर में यह नोटिस लगभग ढाई महीने तक दबी रही. इस लापरवाही पर मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने अपने जनरल सेक्रेटरी से रिपोर्ट मांगी और मामले का स्वतः संज्ञान लिया. अगले दिन न्यायालय ने कड़ा रुख अपनाते हुए तीन बार सुनवाई की और चार आदेश दिए-इस मामले से जुड़े पांचों केस दिल्ली ट्रांसफर किए जाएं. ये मामले दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट में सुने जाएं. हर रोज सुनवाई हो. हादसे वाले मामले को छोड़कर शेष चार केस में 45 दिन में फैसला दिया जाए. प्रदेश सरकार पीड़िता को 25 लाख और वकील को 20 लाख रुपए का मुआवजा दे. सड़क हादसे की जांच केंद्रीय एजेंसी सात दिन में पूरी करे. जरूरत पड़ने पर सात दिन और मांग सकेगी. परिवार और गवाहों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सीआरपीएफ संभाले.

न्यायालय की सख्ती के बाद सरकारी तंत्र हरकत में आया. आरोपी विधायक को सीतापुर जेल से तिहाड़ शिफ्ट किया तो पीड़िता को बेहतर इलाज के लिए एयरलिफ्ट कर एम्स लाया गया. हालांकि यहां उसकी और लखनऊ मेडिकल कॉलेज में वकील की हालत स्थिर बनी है. केन्द्रीय एजेंसी विधायक व अन्य दस के खिलाफ मामला कायम कर हादसे की जांच कर रही है. इस मामले में उत्तर प्रदेश सरकार और बीजेपी कठघरे में थी. लोकसभा में कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी और सपा के अखिलेश यादव ने मामले को उठाया तो बेशर्मी की हदें पार करते हुए दल-बदल के लिए ख्यातलब्ध बीजेपी सांसद जगदम्बिका पाल ने कांग्रेस और सपा पर ही उल्टा निशाना साधा कि “यह योगी सरकार को बदनाम करने की साजिश है. उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त है. कांग्रेस की कोई जमीन नहीं बची है. पूरा देश जान चुका है. यह सदन का समय खराब कर रहे हैं. देश को गुमराह कर रहे हैं. ट्रक सपा नेता का था.”

फतेहपुर से बीजेपी सांसद निरंजन ज्योति महिला होते हुए भी एक पीड़ित महिला के विरोध में खड़ी नजर आईं और आरोपी को बचाने के कथित प्रयास में कह गईं कि “ट्रक वाला सपा का कार्यकर्ता है, यह बीजेपी को बदनाम करने की साजिश है.” यही नहीं सपा सांसद आजम खान के शब्दों पर हंगामा मचाने वाली बीजेपी व उसके सहयोगी दलों की महिला सांसदों की जुबान को मानो काठ मार गया. ‘यू कैन नॉट मिस विहेव विद वूमेन एंड द गेट वे द एग्जिट’ जैसे शब्दों के जरिए चीखने वाली महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने मौन धारण कर लिया. ‘वी लुक टू वर्ड यू’ और ‘एक्शन होना चाहिए’ जैसे वाक्यों के जरिए आजम के शब्दों को लपकने वाली वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण के पास मानो शब्दों का अकाल पड़ गया. मीनाक्षी लेखी, संघमित्रा मौर्य, अनुप्रिया पटेल और हरसिमरत कौर पीड़िता की वकालत करना भूल गईं. आजम खान के शब्दों से तकलीफ से गुजर रही रमा देवी इसलिए नहीं बोलीं क्योंकि बलात्कार का आरोपी विधायक बीजेपी का चिराग है. उस चिराग को न बुझने देने के लिए कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद की नाक फूलना बंद हो गई और आजम के शब्दों में कुटिलता देखने वाले संसदीय कार्य मंत्री अर्जुन मेघवाल की टोपी पर अब कोई आंच नहीं आ रही.

जातीय गुणा-भाग और विधानसभा चुनाव जीतने के दमखम ने आरोपी विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को बीजेपी का दुलारा बना दिया. वह बीजेपी ही नहीं एक समय बसपा और सपा का भी दुलारा रहा है. वह 2002 में बसपा, 2007 और 2012 में सपा से विधायक बना. लोकतंत्र में संख्या का अपना महत्व है. इसी जिताऊ संख्या के लिए बीजेपी उसे 2017 में अपनाती है और वह बांगरमऊ से अपने विजय अभियान पर मोहर लगाता है.

सवाल उठता है कि जिस विधानसभा में अपराधियों की पूरी फौज हो वहां कौन कुलदीप सेंगर जैसे लोगों पर सवाल उठाएगा. जब आरोपी जातिगत हैसियत रखने वाला विधायक हो. उस जाति से ताल्लुक रखने का मतलब क्या बीजेपी, क्या कांग्रेस, क्या सपा और क्या बसपा, का कोई मायने न हो. वे भले अलग-अलग दल से आते हों, पर उनके दिमाग में जाति नामक बीमारी इतने गहरे पैठ बना चुकी है कि वह अंदरखाने किसी भी जातीय मामले में एक हो जाते हैं. जब प्रदेश के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री से लेकर बड़ी संख्या में विधायकों पर आपराधिक मामले चल रहे हों तो कौन किसको नैतिकता का पाठ पढ़ाए. इस मामले में सभी दलों का एक जैसा हाल है.

2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 850 ऐसे लोगों को उम्मीदवार बनाया गया जिन पर आपराधिक मामले चल रहे थे. उनमें से अनेक जीतकर विधानसभा पहुंच गए. एडीआर के अनुसार हर दूसरा जनप्रतिनिधि दागदार है. संसद का भी कमोबेश यही हाल है.

संसद में आजम खान ने जब रमा देवी पर फब्ती कसी तो पूरे सत्ता पक्ष को उनके शब्दों में कुटिलता नजर आने लगी. इतनी अधिक कुटिलता कि अगले दिन उन्हें दो-दो बार माफी मांगनी पड़ी, लेकिन सत्ता पक्ष का एक भी सांसद तब नहीं खड़ा हुआ जब उन्नाव में उन्हीं के दल के एक विधायक पर बलात्कार और पीड़िता के पारिवारिक सदस्यों की हत्या का आरोप लगा. बेशक आजम खान एक आत्ममुग्ध और अहंकारी नेता हैं लेकिन उनके प्रसंग में उन्हीं लोगों को निंदा करने का अधिकार है जिनमें उन्नाव की क्रूरता को बयां करने का साहस हो. जिन्हें सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल करते हुए एक महिला की जासूसी कराना, कांग्रेस सांसद शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर को 50 करोड़ की गर्लफ्रेंड बताना, कांग्रेस सांसद रेणुका चौधरी की हंसी की तुलना राक्षसी सूपर्णखा से करना, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को जर्सी गाय और बार बाला बताने जैसी टिप्पणियां भी अश्लील लगती हों.

अगर ऐसा साहस नहीं है तो आजम खान को कोसना और स्त्री की गरिमा की दुहाई देते हुए नैतिकता का पाठ पढ़ाना पाखंड के सिवा कुछ नहीं है. इसी पाखंड को प्रश्नांकित करते हुए जब बाराबंकी की स्कूली बच्ची एक पुलिस अफसर से सवाल करती है तो वह सवाल महज उसका नहीं बल्कि देश भर की बच्चियों का सवाल होता है. क्या नैतिकता की दुहाई देने वाले राजनैतिक दल और सरकारें इन बच्चियों का सवाल सुनने की हिम्मत जुटा पाएंगी.


प्रसंगवश