भारत की पाकिस्तान नीति की समीक्षा का सही वक्त


analysis of coming of mohammed bin salman in context of pulwama attack

 

आतंकवाद के सवाल पर पाकिस्तान को विश्व राजनीति में अलग-थलग करने की भारत की कोशिशों का कोई खास परिणाम नहीं दिख रहा है.

इसका ताजा उदाहरण भारत यात्रा पर आए सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के रवैये में दिखा. इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि अपने वक्तव्य में उन्होंने पुलवामा हमले का जिक्र तक नहीं किया. उन्होंने आतंकवाद से मिलकर लड़ने की बात तो कही, लेकिन सीमा-पार आतंक का हवाला तक नहीं दिया. ऐसी स्थिति में प्रोटोकॉल तोड़कर प्रधानमंत्री मोदी का उनके स्वागत के लिए जाना व्यर्थ ही नजर आता है.

आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में सऊदी अरब हमारा कितना साथ दे सकता है? इस बात को समझने के लिए पाकिस्तान से सऊदी अरब के संबंधों को समझना जरूरी है. भारत आने से पहले मोहम्मद बिन सलमान पाकिस्तान गए थे. आर्थिक मोर्चे पर संकट से जूझ रहे पाकिस्तान की मदद करने के लिए सऊदी अरब ने उसके साथ 20 अरब डॉलर का करार किया. 

यहां इस बात को भी रेखांकित करना जरूरी है कि 2015 में सऊदी अरब ने आतंकवाद से लड़ने के नाम पर 41 देशों का ‘आतंकवाद-विरोधी इस्लामिक सैन्य गठबंधन (IMCTC)’ बनाया था.

2017 में इस सैन्य गठबंधन के नेतृत्व की जिम्मेदारी सऊदी अरब ने पाकिस्तान आर्मी के पूर्व मुखिया रहील शरीफ को सौंप दी. यह बताने की जरूरत नहीं कि पाकिस्तानी आर्मी पर भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाया जाता रहा है. अब ऐसे में यह सवाल पूछना वाजिब है कि क्या रहील शरीफ अपने देश और सेना के खिलाफ जाएंगे?

बात बस इतनी ही नहीं है. आतंक को संरक्षण देने के सवाल पर सऊदी अरब भी अक्सर घिरा नजर आता है. पिछले साल अक्टूबर में ‘वाशिंगटन पोस्ट’ के पत्रकार जमाल खाशोगी की हत्या के बाद तो खुद मोहम्मद बिन सलमान भी सवालों के घेरे में हैं.

बीबीसी की रिपोर्ट कहती है कि पिछले साल नंवबर में ट्यूनीशिया और उसके बाद मोरक्को की यात्रा पर गए मोहम्मद बिन सलमान को भारी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा.

विशेषज्ञों की राय है कि वे सऊदी अरब और अपनी धूमिल हुई छवि को साफ करने के लिए ये यात्राएं कर रहे हैं. इन तथ्यों की रोशनी में यह पूछा जाना चाहिए कि क्या सऊदी अरब आतंकवाद से लड़ाई में हमारा सहयोगी बन सकता है?

लेकिन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि पाकिस्तान के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने की भारतीय मुहिम में अब तक कोई खास सफलता नहीं मिली है. अमेरिका और फ्रांस के अलावा कोई और विश्व शक्ति पाकिस्तान की आलोचना से कतरा रही है. चीन तो खुलकर पाकिस्तान के साथ खड़ा है. यह भी मोटे तौर पर प्रचलित तथ्य है कि अमेरिका के हित बड़े पैमाने पर पाकिस्तान और सऊदी अरब से जुड़े हैं. 

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या यह सही वक्त नहीं है जब भारत की पाकिस्तान नीति की गंभीर समीक्षा की जाए?


प्रसंगवश