यह बर्बरता कहां ले जाएगी?


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भारत में धार्मिक स्वतंत्रता की बाबत अमेरिकी विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट को मोदी सरकार ने खारिज किया ही था कि उसके बयान को मुंह चिढ़ाती एक घटना सामने आ गई. झारखंड में एक मुस्लिम युवक को भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला, बाइक-चोरी का आरोप लगाते हुए.

हमलावर झुंड ने उस युवक को बेरहमी से पीटते हुए उसे बार-बार ‘जय श्रीराम’ और ‘जय हनुमान बोलने’ को कहा. इस घटना का वायरल हुआ वीडियो दिखाता है कि जान बचाने की खातिर उसने यह बोला भी. फिर भी उसे जान से हाथ धोना पड़ा. पुलिस हिरासत में उसकी मौत हो गई. इस घटना ने भले देश के संवेदनशील लोगों को स्तब्ध किया हो, पर निस्सहाय व्यक्ति पर उन्माद का कहर ढाने की प्रवृत्ति को जो लोग अंजाम दे रहे हैं और जो लोग इसे बढ़ावा दे रहे हैं उन्हें शायद कोई फर्क नहीं पड़ा.

झारखंड में हुई मॉब लिंचिंग की खबर ताजा ही थी कि इसी तरह का एक और वाकया पश्चिम बंगाल में हो गया. ट्रेन में सफर कर रहे एक छब्बीस वर्षीय मदरसा शिक्षक को ‘जय श्रीराम’ बोलने के लिए मजबूर करते हुए कुछ लोगों ने उनके साथ मारपीट की. फिर चलती ट्रेन से उन्हें नीचे धकेल दिया.

इस तरह की घटनाएं पहले भी हुई हैं. क्या पता आगे भी हों. सवाल है कि यह सिलसिला थम क्यों नहीं रहा है? और दूसरा अहम सवाल यह है कि यह बर्बरता हमें किधर ले जाएगी? क्या यह भारत की महान सभ्यता व संस्कृति के और ऊंचाई पर जाने के लक्षण हैं, या गर्त में जाने के?

यह तो साफ है कि ऐसी घटनाएं कोई आम अपराध नहीं हैं. इसलिए इन्हें मात्र कानून-व्यवस्था के चश्मे से देखना सही नहीं होगा. ऐसी घटनाओं का एक खास पैटर्न है जो गहरी साजिश का शक पैदा करता है. प्रायः सभी मामलों में मॉब लिंचिंग के शिकार व्यक्ति पर कोई-न-कोई आरोप लगाया जाता है. पर उसे पुलिस को सौंपने की जरूरत नहीं समझी जाती. उसे पीट-पीट कर मार दिया जाता है या अधमरा कर दिया जाता है.

पुलिस को पता चलने पर भी वह फौरन सक्रिय नहीं होती. सक्रिय होती भी है तो पीड़ित व्यक्ति पर लगाए गए आरोप को लेकर. हमलावरों को ‘अज्ञात लोग’ मान लिया जाता है. फिर उन्हें बचाने की रही-सही कसर जांच को भटकाकर और सबूतों को कमजोर करके पूरी कर ली जाती है. खबरों के मुताबिक झारखंड मामले में मारे गए व्यक्ति के कबूलनामे में बाइक-चोरी की बात तो शामिल है, पर उसकी जानलेवा पिटाई का कोई जिक्र नहीं है, न ही इस तथ्य का उल्लेख है कि समय रहते उसका इलाज नहीं कराया गया.

लेकिन मॉब लिंचिंग के मामलों में पुलिस का ऐसा रवैया उसकी आम कार्यप्रणाली की ही देन नहीं है. इसके राजनीतिक कारण भी हैं, और यही ऐसे मामलों का सबसे चिंताजनक पहलू है. जब पुलिस को यह आभास हो कि हमलावरों पर सत्ता में बैठे लोगों का वरदहस्त हो सकता है, तो उससे खुलकर कार्रवाई करने की कितनी उम्मीद की जा सकती है?

क्या यह कानून का शासन है? क्या यह ‘न्यू इंडिया’ का ट्रेलर है, और पूरी फिल्म अभी बाकी है?

अमेरिकी विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट को खारिज करते हुए भारत सरकार ने कहा कि अमेरिकी सरकार को इसमें बीच में बोलने का क्या हक है? यानी यह हमारा आंतरिक मामला है. सही है, एक देश को दूसरे देश के घरेलू या आंतरिक मामलों में टोका-टाकी नहीं करनी चाहिए. लेकिन अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने अपनी रिपोर्ट में अल्पसंख्यकों के प्रति वैमनस्य-भरे व्यवहार की बाबत और भी देशों का हवाला दिया है. इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि अकेले भारत को ही लक्ष्य करके निशाना साधा गया है.

फिर, किसी देश में मानवाधिकारों का हनन हो, या वहां अल्पसंख्यक खुद को असुरक्षित महसूस करते हों, तो क्या ऐसे मसले पर बाकी दुनिया को चुप रहना चाहिए? फिर वसुधैव-कुटुंबकम के आदर्श को हम किस तरह चरितार्थ करेंगे? क्या म्यांमार के सैन्य शासन के दौरान मानवाधिकारों को कुचले जाने के खिलाफ और वहां राजनीतिक सुधारों के पक्ष में दुनिया-भर में उठी आवाजों में भारत की भी आवाज शामिल नहीं थी? क्या श्रीलंका में तमिलों के साथ समान और न्यायपूर्ण व्यवहार हो, यह भारत की चिंता नहीं रही है?

यह सही है कि अमेरिकी विदेश मंत्रालय कोई अंतरराष्ट्रीय संस्था नहीं है, पर राजग सरकार ने किस अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन की रिपोर्ट को तवज्जो दिया है?

अमेरिकी विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट को खारिज करने की कूटनीतिक वजह हो सकती है. पर क्या इस तरह सच्चाई पर परदा डाला जा सकता है? और क्या सच से मुंह छिपा कर अल्पसंख्यकों का विश्वास जीता जा सकता है, जिसकी जरूरत अब प्रधानमंत्री भी मान चुके हैं?

मॉब लिंचिंग की घटनाएं एक खास पैटर्न पर हो रही हैं. इनमें पीड़ित अमूमन मुसलमान होते हैं. कई बार दलित भी शिकार बने हैं. मारने वाले भीड़ का हिस्सा होते हैं. पर इसे भीड़ कहना सही नहीं होगा, जिसमें शामिल लोग आपस में अजनबी होते हैं. यह दरअसल झुंड या गिरोह होता है, जो अकेले निस्सहाय आदमी पर कोई आरोप मढ़ते हुए टूट पड़ता है. आरोप लगाने के पीछे हमले को जायज ठहराने की चालाकी काम कर रही होती है. यह कानून का राज है, या जंगल राज?

इस पैटर्न का एक पहलू हमले को धार्मिक पुट दिया जाना है. और यह बात ऐसी घटनाओं के सुनियोजित षड्यंत्र होने के संदेह को और पुख्ता करती है. आखिर कुछ लोगों को यह कैसे सूझता है कि वे एक मुसलमान को ‘जय श्रीराम’ या ‘जय हनुमान’ बोलने के लिए मजबूर करें? किसी हिंदू को भी यह बोलने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता. कोई व्यक्ति किसे आराध्य माने, या चाहे तो किसी को भी आराध्य न माने, यह उसकी निजी स्वतंत्रता है. और इस स्वतंत्रता की गारंटी हमारे संविधान ने देश के सभी नागरिकों को समान रूप दे रखी है.

भारत सरकार ने अमेरिकी रिपोर्ट को खारिज करते हुए हमारे संविधान की इसी विशेषता को रेखांकित किया. पर हमारे संविधान की जो विशेषता है क्या वही संविधान की शपथ लेकर राज-काज चला रहे लोगों की भी कही जा सकती है? क्या उनका व्यवहार और उनकी कार्यप्रणाली धार्मिक भेदभाव से परे है?

संविधान में आजादी की लड़ाई से निकले मूल्य और मानक हैं. संविधान हमें रास्ता दिखाता है. पर क्या हम उस रास्ते पर चल रहे हैं, या उससे दूर जा रहे हैं? उस रास्ते से विमुख होकर संविधान का हवाला देना सिर्फ संविधान की आड़ लेना है.

मॉब लिंचिंग की घटनाओं का जारी रहना क्या बताता है? क्या यह बर्बरता रोकी नहीं जा सकती, या इसे चलने देने के पीछे कोई निहित स्वार्थ है? आखिर हम कैसा राज-काज चला रहे हैं? कैसा समाज बना रहे हैं? क्या इसी तरह हम सबका साथ लेकर सबका विकास करेंगे? क्या इसी तरह अल्पसंख्यकों का विश्वास जीता जाएगा?


प्रसंगवश