1857 की लोक-स्मृति और अजीजन बाई


local tales of 1857 and ajijan bai

 

बीती 10 मई को 1857 की क्रान्ति की 162वीं वर्षगांठ मनाई गई. 1857 की इसी तारीख को मेरठ में, संध्या में, क्रान्ति की आग भड़क उठी थी. कुछ विद्रोही सैनिकों ने पुलिस फोर्स को अपने अभियान में शामिल करके क्रांतिकारी कारनामों को अंजाम दे दिया था. इन सबने मेरठ जेल पर हमला करके सैकड़ों कैदियों को छुड़ा लिया था. जेल में आग लगा दी थी. कैदी भी इनके साथ हो लिए थे. क्रांतिकारियों के साथ शहर के लोग ही नहीं, मेरठ के देहात से ढेरों लोग भी आ गए थे. क्रांतिकारी वहां से दिल्ली की और बढ़ गए. मेरठ में क्रान्ति का बाकी जिम्मा सम्हाल लिया देहाती जनता ने.

11 मई यानी क्रान्ति दिवस का अगला दिन. मेरठ की क्रांतिकारी धधक दिल्ली पहुंच चुकी थी. पिछली दस तारीख की सांझ ने दिल्ली की सुबह को कैसा रंग दिया, इसे इतिहासकार बिपिन चंद्र ने अपनी पुस्तक ‘भारत का स्वाधीनता संघर्ष’ में लिखा है : 11 मई 1857, दिल्ली की सड़कों पर सबेरा अभी उतर ही रहा था. जिंदगी की हलचल अभी शुरू नहीं हुई थी. तभी मेरठ से आए सिपाहियों का एक दस्ता यमुना पार कर शहर में पहुंचा. उन्हें सामने दिखाई दिया चुंगी का दफ्तर. उन्होंने उसमें आग लगा दी और फिर लाल किले की ओर बढ़ गए. इन सिपाहियों ने एक दिन पहले ही मेरठ में अपने अंग्रेज अफसरों का आदेश मानने से इंकार कर दिया था और उनकी हत्या कर दी थी.

आगे क्रान्ति की ज्वाला और वृत्त बनाती गयी. दिल्ली कब्जे में आ चुका था. अंग्रेजों की सैनिक ताकत आधी हो गयी थी. क्योंकि आधे सैनिक क्रांतिकारी में तब्दील हो चुके थे. अवध इस क्रांति का केंद्र बन चुका था. असर दूर-दूर फैल रहा था. आवाम क्रांतिकारियों के साथ थी. यह सबसे बड़ी ताकत थी. कुछ राजे-रजवाड़े भी अंग्रेजों से लड़ रहे थे. लेकिन इनका एक बड़ा हिस्सा अंग्रेजों से मिल भी गया था. यही क्रान्ति के विफल होने का कारण बना. अंग्रेजों के समर्थन में सिंधिया जैसे राजा न आये होते, अपनों के खिलाफ न हुए होते, तो अंग्रेजों का तम्बू नब्बे साल पहले ही उखड़ चुका होता.

क्या इसे विफल क्रान्ति कहा जाएगा? किसी भी आंदोलन की सफलता सिर्फ राजनीतिक दृष्टि से नहीं आंकी जानी चाहिए. यह सांस्कृतिक रूप से बहुत सफल आंदोलन था. इससे पहले जनता और राजा भारत में शायद ही इतने बड़े पैमाने पर एक साथ आकर किसी दुश्मन सत्ता से टकराये होंगे. शायद ही देहात और शहर इससे पहले कभी इतना एक होकर लड़े होंगे. बाद की आजादी की लड़ाई की प्रेरणा इस पहले स्वाधीनता संघर्ष से मिली थी, इससे इंकार नहीं किया जा सकता. जो आग तब लगी थी, वह बुझी नहीं थी, बल्कि नब्बे साल बाद उसने विदेशी सत्ता को झुलसा कर देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया था.

क्रान्ति दिवस को ध्यान में रखते हुए यह विचार करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि आज 1857 को कितना याद किया जाता है. इसे कितना याद किया गया है. किस रूप में याद किया गया है. आज के ‘नैरेटिव्स’ में यह महाविद्रोह कैसी आग-आंच पैदा करता है? कहना न होगा कि सोच-विचार की जो ‘एलीट’ परम्परा इस देश में उपजी उसने इस महासंग्राम को जैसे अपनाना चाहिए था, नहीं अपनाया. लेकिन एक दूसरी परम्परा है जिसने इसे कभी नहीं भुलाया. आज तक जहां के भाषिक मुहावरों में यह संग्राम जीवित है. यह दूसरी परम्परा है लोकजीवन की. उसके लोकगीतों में, लोक कहावतों में, लोक-चरित्रों में, लोका-स्थलों में 1857 आज भी मौजूद है.

जरूरी नहीं कि कोई विदेशी या विजातीय वर्चस्व राजनीतिक रूप से हट जाए तो वह सांस्कृतिक रूप से भी हट जाएगा. सांस्कृतिक रूप से उसे हटाने के लिए अतीत की स्मृतियां बहुत जरूरी हैं. आज लोगों की मानसिकता पर उपनिवेशवादी असर कायम हैं. गौरवशाली जातीय आन्दोलनों की स्मृतियाँ रहें तो ऐसा न हो. इन स्मृतियों को लेकर अपने देश का जो अभिजात बुद्धिजीवी चिंतन है, वह सचेत नहीं है. 1857 के विषय में वरिष्ठ हिंदी आलोचक मैनेजर पांडेय, जिन्होंने ‘1857 और लोकगीत’ नामक पुस्तक का संकलन-सम्पादन किया है, का कहना सही है : 1857 की स्मृति पहले भी लोकजीवन में जितनी रही है, उतनी अभिजात वर्गों के जीवन में नहीं रही है. 1857 के महाविद्रोह की स्मृतियाँ लोकगीतों में, लोक काव्यों में और लोक कथाओं में पहले भी व्यक्त होती रही हैं और आज भी हैं. जिसको साहित्य और समाज की तथाकथित मुख्यधारा कहा जाता है, उसने 1857 को भूलने-भुलाने का काम ही अधिक किया है.

ऐसे ढेरों चरित्र हैं जो इस महाविद्रोह में अप्रत्याशित रूप से सामने आए और न्योछावर हुए. इन्हें अपने यहां के इतिहास में कितनी जगह मिली, ठीक-ठीक नहीं कह सकते लेकिन गांवों-देहातों की जुबान में ये सहेजे गए. अंचलों ने अपने आंचलिक नायकों को नहीं बिसराया. स्मृतियां यों बची रहीं. सेनानी और नायक तो अनेक हैं, कुछ पहचाने गए तो कुछ गुमनामी में हैं. बात खत्म करने से पहले अजीजन बाई की चर्चा जरूर करना चाहूंगा.

अजीजन बाई को जानकर यह जाना जा सकता है कि कितनी गहरी साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना लोगों में थी. ऐसे लोगों में जो बहुत कुछ मजबूरी में झेल रहे थे, एक उम्मीद की आंच दिखते ही वे सर्वस्व त्याग के लिए तैयार हो गए. अजीजन एक नृत्यांगना थीं जिनके यहां अंग्रेज अफसर आते-जाते थे. जब आजादी की पहली लड़ाई छिड़ी तो वे गोपनीय तरीके से आजादी के लिए लड़ रही फौज के सेनानायक तात्या टोपे से मिलाने आईं. उन्होंने कहा कि देश के लिए वे भी अपनी जान की बाजी लगाने को तैयार हैं. टोपे ने उनकी सराहना की और कहा कि गोरे अफसरों की गुप्त सूचनाएं आप ला सकती हैं. यह हमारे बड़े काम की होंगी. अजीजन ने ऐसा ही किया. बहुत मदद की. लेकिन अफसोस कि एक दिन अंग्रेजों को इसकी जानकारी हो गयी कि अजीजन सूचना साझा कर देती हैं. उनपर जुल्म ढाए गए. उनकी हत्या कर दी गयी.

अजीजन के सम्बन्ध में यह लोकगीत है जो बताता है कि लोकजीवन अपने किसी भी योद्धा को भूलता नहीं. अपनी जुबान में उसे अमर कर देता है :

”फौजी टोपे से मिली अजीजन
हमहूँ चलब मैदान मा.
बहू-बेटिन कै इज्जत लूटैं
काटि फैंकब मैदान मा.
अइसन राच्छस बसै न पइहैं
मारि देब घमसान मा.
भेद बताउब अंग्रेजन कै
जेतना अपनी जान मा.
भेद खुला तउ कटीं अजीजन
गईं धरती से असमान मा.”

[मतलब – अजीजन बाई आजादी के लिए लड़ने को तैयार होकर सेनानी तात्या टोपे से मिलीं. मैदान में चलकर लड़ने का अनुरोध किया. कहा कि ये अंग्रेज हिन्दुस्तानी बहू-बेटियों की इज्जत लूटते हैं, इन्हें मैं मैदान में काट फेंकूंगी. जब घमासान युद्ध होगा, ऐसे राक्षसों को बचने नहीं दूंगी. मार डालूंगी. (तात्या ने उनसे कहा कि मुझे अंग्रेजों का भेद बताइये) उन्होंने कहा कि जितना भी मेरी जानकारी में होगा, अंग्रेजों का सारा भेद मैं आपको बताऊंगी. फिर एक दिन अजीजन का भेद अंग्रेजों के सामने खुल गया. वे मार-काट डाली गयीं. इस धरती से उठ कर वे आसमान में चली गयीं.]


प्रसंगवश