तेवर, जहां अब भी दिखता है प्राचीन भारतीय इतिहास का वैभव


Tewar, the glory of ancient Indian history

  ALAMY

जबलपुर से भोपाल के रास्ते भेड़ाघाट चौराहे की ओर बढ़ने पर रास्ते के किनारे एक गांव की नामपट्टिका दिखायी पड़ती है, ‘तेवर’. बालसागर तालाब के तट से होता हुआ संकरा रास्ता तेवर गांव तक जाता है. इस गांव की जड़ें महाभारत काल और उससे भी पीछे तक जाती हैं.

गांव में प्रवेश करने पर कुछ खपरैल और कुछ पक्के मकानों का सिलसिला शुरू होता है. जरा गौर से देखें तो तेवर की असाधारणता दिखने लगेगी. आंगन को घेरने के लिए बनाई गई दीवारों पर पलस्तर नहीं हैं. इन्हें जरा खोजी निगाहों से देखें, तो ईंटें कुछ भिन्न दिखायी देंगी. आम किस्म की जानी-पहचानी ईटों की तुलना में थोड़ी पतली, कुछ ज्यादा चौड़ी और रंग में फीकी. ये ईंटे वजन में काफी हल्की हैं. ये सदियों पुरानी ईंटे करनबेल और हथियागढ़ की खुदाई से मिली हैं.

अब जरा घरों के गवाक्षों को देखिए…,अरे वहां सीमेंट की जाली या खिड़की नहीं हैं, बल्कि कोई मूर्ति ही इस तरह जड़ दी गयी हैं. यह गवाक्ष और वास्तु-सौंदर्य की निमित्त बन गयी हैं.

तेवर में मिली महत्वपूर्ण मूर्तियां सागर विश्वविद्यालय, जबलपुर विश्वविद्यालय और रानी दुर्गावती संग्रहालय, जबलपुर में रखी गई हैं. लेकिन कम महत्व की असंख्य-मूर्तियों को यहीं छोड़ दिया गया है. खेतों, खड्डों और खाईयों से मिली इन मूर्तियों को घरों में सजा दिया गया है.

लीजिये हम बावली आ पहुंचे. यह कल्चुरि-कालीन बावली है, जिसकी आकर्षक बनावट आपके कदमों को रोक लेती है. स्त्रियाँ यहां कपड़े धो रही हैं, स्नान कर रही हैं. निकट ही एक उम्रदराज-वृक्ष के नीचे विषालकाय शिव-मूर्ति रखी हुई है. देखते ही उसकी प्रचीनता का आभास हो जाता है. आगे बढ़ते जाएं और गांव को पीछे छोड़कर जंगल में प्रवेश करने के बाद एक ओर खेतों की कतारें और दूसरी ओर टीले, मिट्टी के ढूह और हथियागढ़ किले के भग्नावशेष दिखाई देने लगेंगे. यहां अब कुछ प्रस्तर-स्तंभ ही बचे हैं, शेष स्तंभों को दो शताब्दी पहले रेलवे-पुल के निर्माण में उपयोग कर लिया गया है.

मिट्टी के टीलों में कुछ स्थानों को थोड़ा-सा कुरेदने पर अनाज के दाने निकलने लगते हैं. ये दाने काले रंग के हैं और जले हुए हैं. लेकिन इनके आकार अब भी बना हुआ है. अनुमान लगाया जाता है कि नगर के मिट्टी में दबने  के बाद अनाज भंडार भी मृदा-गर्भ में दब गए. मिट्टी में दबने के बाद ताप और दाब की वजह से अनाज के दानों का रूप बदल गया है. अब ये पुरातात्विक-महत्व के हो गये हैं.

यहां मिट्टी टुकड़े भी मिलते हैं. ये बरतनों के अंश हैं. इनमें त्रिपुरी के तत्कालीन नागरिक अन्न-संग्रहण किया करते थे. इन्हें मिट्टी में पकाया जाता था.

त्रिपुरी का नाम अनेक दृष्टियों से प्राचीन भारतीय इतिहास के लिए महत्वपूर्ण है. शताब्दियों तक यह स्थान, कला, संस्कृति और इतिहास का केंद्र बना रहा है. त्रिपुरी के कल्चुरि-शासकों ने यहीं से भारत के सुदूर प्रदेशों में शासन किया. आधुनिक समय में त्रिपुरी का प्रथम उल्लेख लेफ्टिनेंट कर्नल युले ने किया है. वे भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड कैनिंग के शिविर की व्यवस्था के संदर्भ में साल 1860 में भेड़ाघाट आये थे.

जनरल कनिंघम ने युले को तेवर गांव के दो मंदिरों की तलाश करने का आदेश दिया था. मंदिरों की खोज के क्रम में उन्हें त्रिपुरी के खंडहर को खोज निकाला. ये बिल्कुल नई खोज थी.

युले जब त्रिपुरी पहुंचे थे उस समय वहां नर्मदा नदी पर रेलवे-पुल बनाया जा रहा था. उन्होंने देखा कि मजदूर एक साठ फुट ऊंचे, गोल टीले से विशाल आकार वाले बलुआ पत्थर निकाल रहे हैं.

युले ने इंजीनियर से इस बारे में पूछताछ की. इंजीनियर को पत्थर चाहिए था. उसकी कोई पुरातात्विक-रूचि न थी. वह नहीं जानता था कि इन्हीं पत्थरों के नीचे से एक दीर्घकालिक वैभव की गवाह रही ‘त्रिपुरी’ का अतीत झांक रहा है.

साल 1861 में ‘जर्नल ऑफ दि एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल’ में युले ने त्रिपुरी के विवरण के साथ  रेखाचित्र भी बनाया था. युले को पता लगा कि करनबेल से प्राप्त पत्थर खदान से खोदकर निकालने के बजाए खंडहर हो चुके प्राचीन महल को धराशायी करके निकाले गये थे.

साल 1862 में डॉ. हाल ने ‘विजयसिंह का कुम्भी ताम्रपत्र’ लेख प्रकाशित कराया. इसमें त्रिपुरी का उल्लेख है. तब पहली बार त्रिपुरी की पहचान तेवर में उपलब्ध अवशेषों से की गई.

जनरल अलेग्जेंडर कनिंघम ने साल 1873-74 में त्रिपुरी की यात्रा की और तेवर के अवशेषों पर एक रिपोर्ट तैयार की, जिसका प्रकाशन ‘आर्कियोलॉजिकल सर्वे रिपोर्ट’ में हुआ. उन्होंने भेड़ाघाट के गौरीशंकर मंदिर, चौसठ योगिनी मंदिर, उनमें स्थापित मूर्तियों और कल्चुरि-संवत आदि का उपलब्ध सामग्री के आधार पर विवेचन किया.

साल 1881 में डा. बर्गेस और पंडित भगवान्लाल इंद्रजी ने तेवर से प्राप्त दो अभिलेखों का संपादन किया. ये अभिलेख अब अमेरिकी प्राच्य विद्या परिषद में संरक्षित हैं. इन्हीं से त्रिपुरी की पहचान करनबेल के पुरावशेषों के माध्यम से हुई.

साल 1890 में डॉ. कीलहार्न ने तेवर और भेड़ाघाट से प्राप्त कई अभिलेखों का प्रकाशन किया. साल 1884 में पंडित भगवान्लाल इंद्रजी ने पहली बार त्रिपुरी गणराज्य के तांबे के सिक्कों का प्रकाशन किया. साल 1897 में कजेन्स ने अपनी किताब ‘ए लिस्ट ऑफ दि एण्टिक्वेरियन रिमेन्स इन द सेंट्रल प्राविंसेज एण्ड बरार’ में तेवर के अवशेषों का वर्णन प्रस्तुत किया. साल 1992 में राखालदास बैनर्जी ने इस दिशा में बहुत महत्वपूर्ण काम किया. उन्होंने अपनी किताब ‘दि हैहयज ऑफ त्रिपुरी एंड देयर मानुमेंट्स’ में कल्चुरि इतिहास का विस्तार के साथ विवेचन प्रस्तुत किया. इसके अलावा इन्होंने भेड़ाघाट और त्रिपुरी के भग्नावशेषों एवं मूर्तियों का वर्णन भी किया है. बैनर्जी ने तेवर की बड़ी बावली के अवशेषों और बड़ी संख्या में मूर्तियों के चित्र भी प्रकाशित किए.

इन प्रयासों के बीच त्रिपुरी के प्रति जन आकर्षण निरंतर बढ़ता रहा और साल 1939 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 52वां अधिवेशन भी त्रिपुरी नाम से पूरा हुआ. इसी अधिवेशन के मौके पर जबलपुर के राजेन्द्र सिंह और विजय बहादुर श्रीवास्तव ने ‘त्रिपुरी का इतिहास’ नामक पुस्तक का प्रकाशन किया.

पुरातात्विक-खोजों से भेड़ाघाट के निकट के इलाके में पुरापाषाण युग के अनेक जीवाश्म प्राप्त हुए हैं. यहां पाषाण-अस्त्र भी मिले हैं. इनमें कुल्हाड़ियां, विदारणियां, गंडासे प्रमुख हैं. मध्य पाषाण युग और उत्तर पाषाण युग के औजार भी बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं. इनमें चकमक और सूर्यकान्त की खुरचनियों का विशेष महत्व है. इनका काल आज से 20 हजार वर्ष पूर्व का ठहरता है. पाषाणयुगीन अस्त्र 5,000 वर्ष पुराने हैं, जिनमें बारीक छुरियां, खुरचनियां, गार, चकमक और सूर्यकांत पत्थर के क्रौड़ पाषाण उल्लेखनीय हैं. ये खोजें बताती हैं कि वर्तमान तेवर गांव और भेड़ाघाट में पुरा-पाषाणकाल में ही मनुष्य के चरण पड़ चुके थे.

साल 1952-53 में सागर विश्वद्यिलय ने डॉ. मोरेश्वर गंगाधर दीक्षित के निर्देशन में, करनबेल के हथियागढ़ नामक टीले पर, छोटे पैमाने का उत्खनन कार्य कराया. इसका उद्देश्य त्रिपुरी के गुप्त और कल्चुरिकालीन मध्यवर्ती इतिहास की सामग्री की खोज करना था. इस उत्खनन से सीमित मात्रा में ऐतिहासिक महत्व की सामग्री हाथ लगी, क्योंकि उनका उद्देश्य भी सीमित ही था. असली और महत्वपूर्ण उत्खनन कार्य साल 1953 में पूरा हुआ.

विख्यात पुरातत्वशास्त्री डॉ. हंसमुख धीरजलाल सांकलिया के नेतृत्व में मध्य प्रदेश सरकार के पुरातत्व विभाग, सागर और बड़ोदा विश्वविद्यालय तथा डेक्कन कॉलेज, पूना की ओर से एक संयुक्त-अभियान की योजना बनाई गई.

अभियान का उद्देश्य पुराणों में कही गई बातों की प्रमाणिकता को साबित करना था. जिसमें कहा गया है कि भगवान शिव ने माहिष्मती के असुरों के तीन पुरों अर्थात त्रिपुर का अग्नि द्वारा विनाश कर दिया था.

प्रमाण जुटाने के लिए, निमाड़ जिले में नर्मदा तटों पर, आमने-सामने स्थित महेश्वर और नावदा-टोली में उत्खनन किया गया. साल 1953 से 1959 के बीच छह साल तक यह काम चला. उत्खनन से पता चला कि यहां मिले अवशेष 1700 साल पुरानी है.  लेकिन त्रिपुरी के विनाश में महेश्वर के हाथ होने का कोई प्रमाण नहीं मिल पाया.

साल 1966-67 में सागर विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग ने आचार्य कृष्णदत्त वाजपेयी के निर्देशन में उत्खनन कार्य संभाला. यह उत्खनन कार्य दो उद्देश्यों को लेकर किया गया. पहला उद्देश्य ईस्वी चौथी शताब्दी से नवीं शताब्दी के बीच त्रिपुरी जनपद के इतिहास की जानकारी प्राप्त करना था. उत्खनन का दूसरा उद्देश्य  ईंस्वी शताब्दी के पूर्वकाल में इस भू-भाग की बसाहट के बारे में जानकारी प्राप्त करनी थी.

यह खुदाई करनबेल के सभी प्रमुख टीलों में की गई. और इन मामूली से दिखने वाले मिट्टी के टीलों ने, जब अपने गर्भ से, पुरातात्विक-महत्व की रहस्यमय जानकारियों को उगलना आरंभ किया, तो उन्हें देखकर सभी अवाक् रह गये. वहाँ प्रकट हो गये थे, एक अति-प्रचीन संस्कृति के अवशेष. कल्चुरियों का अप्रतिम इतिहास. भारतीय संस्कृति का एक स्वर्णिम-युग ही सूर्य की तरह बादलों की ओट से निकलकर प्रत्यक्ष हो गया.

उत्खनन से प्राप्त अवशेषों के आधार पर त्रिपुरी के प्रचीन इतिहास को पांच खण्डों में विभाजित किया जा सकता है- प्रथम काल, जो ईसापूर्व 1000 से ईसापूर्व 500 तक जाता है, द्वितीय काल, जो ईसापूर्व 500 से ईसापूर्व 300 तक जाता है, तृतीय काल, जो ईसापूर्व 300 से ईसापूर्व 200 तक जाता है, चतुर्थ काल, जो ईसापूर्व 100 से ईस्वी सन् 200 तक आता है और पंचम काल, जो ईस्वी सन् 200 से सन् 350 तक आता है.

त्रिपुरी का प्रथम काल, प्रचीनतम ज्ञात संस्कृति ताम्राष्मयुगीन है. इस संस्कृति के लोग लघु पाषाण-अस्त्रों और चित्रकारीपूर्ण मृदभाण्डों का उपयोग किया करते थे. चकमक पत्थर, सुलेमानी पत्थर, गार, बिल्लौर और सूर्यकांत से बने हुए छोटे पाषाण-उपकरणों का उपयोग करते थे. ये सभी वस्तुएं काली मिट्टी की सघन सतह में मिली हैं. इसके अलावा विभिन्न प्रकार के आकार-प्रकार वाली खुरपियाँ, दुधारी छुरियाँ, बाणाग्र और टांकियाँ भी प्राप्त हुए हैं. त्रिपुरी में क्रौड़ भी मिले हैं, जो इस बात की गवाही देते हैं कि लघु पाषाण उपकरणों का निर्माण-उद्योग त्रिपुरी में ही होता था. त्रिपुरी वासी उनकी निर्माण-कला में दक्ष थे. यहां से अभ्रक मिश्रित मिट्टी के चित्रकारी पूर्ण बरतन भी मिले हैं. ये बर्तन मोटे और बड़े घड़ों के कोणाकृति वाले ऊपरी भाग हैं.

दूसरे काल में पहुँचने पर, उत्खनन बताता है कि यह बस्ती बाणगंगा नदी और एक छोटे नाले के संगम पर स्थित, एक टीले पर बसी हुई थी. यह टीला प्राकृतिक-रूप से तीन अलग-अलग भागों में बंटा हुआ है और एक-दूसरे से गलियों द्वारा जुड़ा हुआ है. हो सकता है कि इसी कारण इसका नाम त्रिपुरी पड़ा हो. उत्खनन से पता चलता है कि इस बस्ती के लोग मिट्टी की दीवारों और छाये गये छप्परों वाले घरों में रहा करते थे. कहीं-कहीं खपरैल का उपयोग भी होता था. फर्श पर चूने का पलस्तर किये जाने के प्रमाण मिले हैं. यहां के निवासी पकी हुई मिट्टी के बर्तनों का उपयोग करते थे. बर्तनों के अलावा, इस काल में त्रिपुरीवासी तांबे, लोहे, कांसे, हड्डी, हाथीदांत, स्फटिक, सुलेमानी पत्थर, इंद्रगोप, और पकी हुई मिट्टी से बनी विविध वस्तुओं का प्रयोग करना भी जानते थे. इनमें जो वस्तुएं उत्खनन में मिलीं, वे हैं- लोहे की कीलें, छल्ले, तांबे की अंजन-शलाकाएं, अंगुली में पहनने की टोपियाँ, मछली-युगल आकृति वाली वस्तुएं और पकी मिट्टी के झामे जिन्हें स्किन रबर भी कहा जाता है. पकी मिट्टी के खिलौनों और मूर्तियों का भी प्रचलन रहा है. तांबे के सिक्के भी यहां से मिले हैं.

तीसरे काल की उपलब्ध सामग्री बताती है कि यह समय त्रिपुरी के विकास और उन्नति का समय था. मिट्टी के मकान इस काल में भी प्राप्त हुए हैं, परंतु अन्तर यह है कि मकानों की नींव में बड़ी-बड़ी चट्टानों के टुकड़े डाले जाने लगे थे और मिट्टी का पलस्तर भी किया जाने लगा था. इस काल के लोग पकी हुई ईंटों का प्रयोग करना सीख गये थे. घरों की छतों पर पकी मिट्टी की खपरैल का उपयोग होता था. खपरों को नीचे लकड़ी के लट्टों पर लोहे की कीलों में फंसा दिया जाता था. इन घरों में गन्दे पानी के निकास के लिये मण्डलकूपों और सोख्ता-गड्ढों का प्रयोग होता था. मण्डल कूपों का निर्माण पकी हुई मिट्टी के छल्लों को, एक के ऊपर एक रखकर किया जाता था. अनाज के संग्रह के लिये बड़े आकार वाले मिट्टी के मटकों का उपयोग होता था. उत्खनन में मिट्टी की थालियां और छोटे कटोरे भी मिले हैं. तांबे के सिक्कों का प्रचलन इस काल में भी था. त्रिपुरी जनपद ने अपनी स्वाधीनता और समृद्धि को प्रकट करने के लिये तांबे और कांसे के कलात्मक सिक्के भी प्रचलित किए थे. इन सिक्कों पर ‘तिपुरी’ और ‘त्रिपुरी’ अंकित है. यह अंकन ब्राह्मी लिपि में है. इस काल में कांच का उपयोग भी किया जाता था.

चौथे काल में त्रिपुरी का विकास निरंतर गतिमान रहा. मकान बड़ी-बड़ी ईंटों से बनने लगे थे. सोखता गड्ढे भी पकी ईंटों से बनाये जाने लगे थे. कुएं के वृत्त भी इन्हीं ईंटों के होते थे. इस काल में त्रिपुरी जनपद के सिक्कों की जगह सातवाहनों के तांबे, सीसे और पोटिन के सिक्के बड़ी संख्या में मिले हैं. इससे पता चलता है कि यहाँ सातवाहन राजाओं का शासन रहा होगा. मिट्टी के बर्तनों के बाहरी भाग में ठप्पे लगातार अनेक प्रकार की कलामय आकृतियाँ बनायी जाने लगीं थीं. ये आकृतियाँ स्वस्तिक, त्रिषूल, पूर्णकुम्भ और सूर्य-बिम्ब की पायी गयी हैं. ठप्पे लकड़ी के होते थे. लमेटाघाट नामक स्थान से प्राप्त कावली अथवा चीनी मिट्टी के बर्तन भी मिले हैं. यहाँ कटोरे, थालियाँ और टोंटियों वाले जलपात्र भी मिले हैं. इसके अलावा खैलखड़ी और संगमरमर से बनी वस्तुओं का उपयोग भी यहाँ के लोग करते थे. इनसे निर्मित मंजूषाएं, श्रृंगारदान और आभूषण भारी तादाद में मिले हैं. इनकी अलंकारिकता दर्शनीय है. अर्ध-मूल्यवान पत्थरों, कांच, शंख, पकी मिट्टी के मनके, मिट्टी की मूर्तियाँ, लोहे के उपकरण, अंगुलि-त्राण, अंगूठियाँ, सिर घिसनियाँ, मसाला और अनाज पीसने वाली पत्थर की चक्कियाँ भी प्राप्त हुई हैं.

पंचम काल के उत्खनन से त्रिपुरी में लोहे के भालों, बर्छों और बाणों के फलक बड़ी संख्या में मिले हैं. ये हथियार दो प्रकार के हैं. एक प्रकार के हथियार वे हैं, जिनमें मूठ को चीरे हुए बांस या सरकंडे में फंसा कर चमड़े से बांधा जाता था और गोंद लगाकर उन्हें मजबूती दी जाती थी. दूसरे प्रकार के शस्त्रों की मूठें खोखली होती थीं और उनमें यष्टि को फंसा दिया जाता था. फिर लोहे की चूडियों से जोड़ को मजबूत बना दिया जाता था. एक ऐसा भाला भी खुदाई में मिला है, जिसकी खोखली मूठ पर पीतल की दांतेदार तिरछी चूडियां लगी हुई हैं. खुदाई में एक ऐसे भवन के अवशेष भी मिले हैं, जिससे अनुमान होता है कि यहां धातु के उपकरण बनाने का कारखाना रहा होगा. इस भवन का फर्श आयताकार है और इसका प्लेटफार्म धनुषाकार है. इसमें गोल स्तंभ छिद्र हैं. यहीं आग की भट्टी भी प्राप्त हुई है.

इस काल में अभ्रक के लेप वाले लाल मृदभाण्डों का उपयोग होता था. भवनों की रूपरेखा में अव्यवस्था दिखाई देती है. मिट्टी की मूर्तियों में अन्य संस्कृति का प्रभाव दिखाई देता है. अस्त्र-शस्त्रों की प्रमुखता भी ज्ञात होती है. ऐसा प्रतीत होता है कि साल 400 के आसपास त्रिपुरी पर बाहरी आक्रमण हुआ होगा. इतिहासवेत्ता अनुमान लगाते हैं कि त्रिपुरी पर आक्रमण हूणों ने किया होगा. कुछ अन्य मानते हैं कि शैव्यों ने बौद्धों के विनाश के लिये युद्ध किया होगा. जो भी हो, उत्खनन, शिलालेखों, ताम्रपटों आदि ने त्रिपुरी के इतिहास के वे दरवाजे खोले हैं, जो सदियों से बंद थे.


प्रसंगवश