अमेरिका-तालिबान: शांति वार्ता से क्या हासिल?


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अफगानिस्तान में अमेरिका का तालिबान के खिलाफ 17 साल पुराना ‘युद्ध’ खत्म हो सकता है. कतर में 12 मार्च को खत्म हुई बैठक में इसके संकेत मिले हैं. यह अब तक की दोनों पक्षों की सबसे लंबी वार्ता थी. हालांकि वार्ता के बाद अमेरिका और तालिबान दोनों ने शांति वार्ता में प्रगति होने की बात कही है, लेकिन इस वार्ता से शायद ही कुछ ठोस हासिल हो पाया है.

अंग्रेजी अखबार द टेलिग्राफ में छपी खबर के मुताबिक, वार्ता के बाद तालिबान ने बयान जारी कर कहा है कि हम प्रगति की ओर बढ़ रहे हैं. हालांकि उसने यह भी माना है  कि सीजफायर पर कोई निर्णय अंतिम चरण में नहीं पहुंच पाया है और न ही अफगानिस्तान सरकार के साथ बातचीत के लिए कोई सहमति बन पाई है.

वार्ता की अगली तारीख अभी तय नहीं हो पाई है.

अमेरिका के राजदूत (प्रतिनिधि) जेलेमि खलिजाद ने ट्वीट किया, “करीब दो सप्ताह तक चली इस वार्ता में अमेरिकी सरकार और आतंकियों के बीच दो सहमति पत्रों के मसौदों पर सहमति बनी है जिनमें ‘वापसी समय रेखा और प्रभावी आतंकवाद विरोधी उपाय’ शामिल हैं.”

अमेरिकी कूटनीतिज्ञ ने कहा कि वाशिंगटन पहुंचने के बाद वह अन्य पक्षों को भी शामिल करेंगें जिनमें अफगानिस्तान सरकार भी शामिल है. कतर की राजधानी दोहा में 13 दिनों तक चली सीधी वार्ता में अफगानिस्तान सरकार शामिल नहीं थी.

जेलेमी ने लिखा है, “शांति के लिए स्थिति अनुकूल हुई है. स्पष्ट है कि हर पक्षकार युद्ध को खत्म करने के पक्ष में है. प्रतिकूल परिस्थिति में भी हम आगे बढ़ते रहेंगे और अंतिम लक्ष्य तक पहुंचेंगे.”

वहीं तालिबान की ओर से जारी बयान में कहा गया है, “फिलहाल के लिए दोनों पक्ष बातचीत में हुई प्रगति पर विचार करेंगे, अपने शीर्ष नेतृत्व अपनी बात साझा करेंगे. इसके बाद दोनों समझौता दल अगली बैठक के लिए समय तय करेंगे.”

एसोसिएट प्रेस ने तालिबान के एक सरगना के हवाले से कहा है कि अमेरिका अफगानिस्तान छोड़ने के लिए 18 महीने से दो साल तक का वक्त चाहता है जबकि तालिबान तीन से पांच महीने के भीतर अमेरिका पर अफगानिस्तान को छोड़ने का दबाव बना रहा है.

अमेरिका तालिबान से गारंटी चाहता है कि वह अफगानिस्तान का इस्तेमाल आतंकी घटनाओं के लिए नहीं करेगा.

माना जा रहा है कि ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के बाद अलकायदा का उत्तराधिकारी अयमान अल जवाहरी अफगानिस्तान में छिपा हुआ है. इसके साथ ही यमन और सऊदी अरब में सक्रिय कई आतंकी संगठनों के सरगनाओं के अफगानिस्तान में छिपे होने की संभावना है.

तालिबान इससे पहले तक अफगानिस्तान की सरकार को ‘अमेरिकी कठपुतली’ कह कर बातचीत करने से मना करता रहा था. वह अमेरिका से सीधी बातचीत करना चाहता था. लेकिन सितंबर 2018 में अफगानिस्तान में खलिजाद के सत्तारूढ़ होने तक अमेरिका ने खुद को सीधे समझौते से अलग रखा था.

तालिबान आतंकी संगठन अलकायदा को संरक्षण देता रहा है. अक्टूबर 2001 में अमेरिकी सेना के अफगानिस्तान में युद्ध छेड़ने से पहले तक अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा था. पिछले कुछ साल में एक बार फिर तालिबान ने हमले तेज कर दिए हैं और करीब-करीब हर रोज अफगानिस्तान सुरक्षा बलों पर हमले हो रहे हैं. ऐसे हालातों में अमेरिका के लिए भी मुश्किलें बढ़ गई हैं. राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप इसको लेकर अपनी झुंझलाहट जाहिर कर चुके हैं.

तालिबान और पाकिस्तान के साथ ही पाकिस्तान के विदेश मंत्री कुरैशी ने भी कहा कि शांति वार्ता में प्रगति हुई है.

जर्मनी के विदेश मंत्री हाइको मास के साथ बातचीत में उन्होंने कहा कि पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के सभी पक्षकारों को एक साथ बैठने के लिए प्रोत्साहित किया है.

पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने कहा कि शांति वार्ता के लिए पाकिस्तान ने जोर लगाया है जिसके बाद पाकिस्तान और अमेरिका के बीच तल्ख हो चुके रिश्तों में सुधार आया है. इससे पहले अमेरिका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने आरोप लगाया था कि ‘बिलयन डॉलर’ सहायता पाने के बावजूद पाकिस्तान आतंकी संगठनों को अपनी जमीन का इस्तेमाल करने दे रहा है.

यह शांति वार्ता कतर के एक रिजार्ट में हुई है.


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