जल संकट के जिम्मेदार कौन हैं?


Who is responsible for the water crisis?

 

देश में पानी का संकट लगातार बढ़ रहा है. सभी जगह ‘पानी का संकट और उसे दूर करने के उपायों’ पर मंथन हो रहा है. पानी के संकट के लिए जनसंख्या में बढोतरी, पानी का दुरुपयोग और सिंचाई के लिए पानी की बरबादी के लिए आम लोगों और किसानों को जिम्मेदार ठहराने का काम जारी है. लेकिन सच्चाई क्या है? पानी का संकट क्यों बढ़ रहा है? और उसके लिए कौन-कौन जिम्मेदार हैं? इन सभी प्रश्नों के जवाब ढूंढने होंगे तभी हम सही उपाय कर पाएंगे.

प्रकृति से छेड़छाड़ के कारण बारिश का मिजाज बदला जरूर है. अब पहले जैसी रिमझिम बारिश कम ही होती है. लेकिन देश में सौ साल की बारिश का रिकॉर्ड बताता है कि बारिश की मात्रा लगभग समान रही है. देश के अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्र में औसत वर्षा हर साल जितनी होनी चाहिए उतनी ही हो रही है.

ऋतुचक्र में बदलाव के कारण चार साल में एक बार बारिश का कम या अधिक होना भी प्रकृति चक्र के अनुरूप ही है. नदी बेसिन के हिसाब से अलग-अलग बेसिनों में प्रतिवर्ष जल उपलब्धता 300 घनमीटर से 13,393 घनमीटर है.

केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष औसतन 4,000 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) वर्षा होती है. प्राकृतिक वाष्पीकरण और वाष्पोत्सर्जन के बाद नदियों एवं जलस्रोतों के माध्यम से औसतन वार्षिक जल उपलब्धता 1869 बीसीएम है. जिसमें से प्रतिवर्ष सतही जल 690 बीसीएम और भूजल 433 बीसीएम को मिलाकर 1123 बीसीएम जल उपयोग के योग्य होता है. इसमें कुल मिलाकर 813 बीसीएम पानी का उपयोग किया जा रहा है. जिनमें सिंचाई के लिए 688 बीसीएम , पेयजल के लिए 56 बीसीएम तथा उद्योग, उर्जा व अन्य क्षेत्र में 69 बीसीएम पानी का उपयोग होता है.

सिंचाई, पेयजल, उद्योग, ऊर्जा और अन्य क्षेत्रों से पानी की मांग वर्ष 2010 में 710 बीसीएम से बढ़कर 2025 में 843 बीसीएम और वर्ष 2050 में 1180 बीसीएम होने का अनुमान है.

हर साल निश्चित मात्रा में बारिश होने के बावजूद पानी का संकट लगातार बढ़ रहा है. नदियां अब साल भर नहीं बहती हैं. कुछ अपवाद छोड़ दिए जाएं तो देश की ज्यादातर नदियां, नाले, तालाबों, झीलों, कुओं में अब केवल बारिश के मौसम में ही पानी दिखाई देता है.

भू-गर्भ का पानी जो कभी कुओं से हाथों से निकाला जाता था. उसका जल स्तर अब सैकड़ों और कहीं-कहीं तो हजार फीट नीचे चला गया है. देश में पानी का हाहाकार मचा है. लोगों को पीने के लिए पानी नहीं मिल पा रहा है. एक बड़ी आबादी अपनी जरूरत का पानी प्राप्त करने के लिए पूरा दिन गंवाते हैं.

पानी के अभाव या अशुद्ध पानी के कारण लोग मर रहे हैं या बीमार हो रहे हैं. घरेलू पशु पानी नहीं मिलने की वजह से मर रहे हैं. पानी के अभाव के कारण खेती दम तोड़ रही है. जंगल सूखकर वीरान हो रहे हैं. जंगल में पशु और पक्षी मर रहे हैं या जंगल से गांव और खेत की ओर पलायन के बाद मारे जा रहे हैं. वृक्षों की कई प्रजातियां नष्ट हो चुकी हैं. जल संकट की वजह से जैव-विविधता और पर्यावरण को भी बड़ी और अपरिवर्तनीय क्षति हो रही है.

नीति आयोग के अनुसार वर्तमान में 60 करोड़ भारतीय अत्याधिक जल संकट का सामना कर रहे हैं. पानी तक सुरक्षित और अपर्याप्त पहुंच के कारण हर साल दो लाख लोग मारे जाते है. साल 2030 तक देश में पानी की मांग उपलब्ध आपूर्ति से दोगुना होने का अनुमान है. आनेवाले समय में करोड़ों लोगों के लिए पानी की कमी होगी और देश के जीडीपी को छह प्रतिशत का नुकसान उठाना पड़ेगा.

पीने और घरेलू उपयोग के पानी की आवश्यकता कुल उपयोग योग्य पानी की उपलब्धता की तुलना में मात्र तीन प्रतिशत है. इससे स्पष्ट है कि देश में जहां सबसे कम बारिश होती है वहां भी अगर सही जल नियोजन किया जाता तो आबादी दोगुनी होने पर भी पीने के पानी का संकट होना संभव नहीं है.

जब हम यह स्वीकार करते हैं कि देश की 50 प्रतिशत आबादी जल संकट से गुजर रही है, जिन्हे प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 40 लीटर से कम पानी उपलब्ध होता है. जबकि 30 से 35 प्रतिशत लोगों को केवल जरूरत भर पानी मिल पाता है. तब यह आसानी से समझा जा सकता है कि पीने और घरेलू इस्तेमाल के लिए प्रतिदिन प्रति व्यक्ति औसतन 40 लीटर के हिसाब से देश की 85 प्रतिशत जनता के लिए मात्र 14 बीसीएम पानी का उपयोग हो रहा है.

पीने में इस्तेमाल होनेवाले 56 बीसीएम पानी में से 42 बीसीएम पानी 15 प्रतिशत अमीर पीते हैं. अर्थात पानी की खपत के लिए बढ़ती जनसंख्या नहीं, अमीरों की जीवनशैली कारण बनी है. उसके लिए जनसंख्या को जिम्मेदार ठहराना एक साजिश है.

देश की खाद्यान्न सुरक्षा के लिए वर्षा आधारित फसलों और सिंचित फसलों को पैदा कर देश की जरूरत पूरी करना राष्ट्रीय कार्य है. इन फसलों के लिए पानी की खपत राष्ट्रीय उत्पादन के लिए की गई खपत है. किसान सिंचाई के लिए मौजूदा तरीके अपनाता है. जब सिंचाई के लिए कम पानी खपत के तरीके ढूंढे जाएंगे तो किसान को शौक नहीं कि वह पानी की अनावश्यक बरबादी करे. सिंचाई के मौजूदा तरीकों में बड़े पैमाने पर पानी का इस्तेमाल होता है, उसमें पानी की बरबादी होती है और उसे नियंत्रित करने की आवश्यकता भी है. लेकिन अगर सरकार द्वारा फसलों की कीमत के निर्धारण में पानी के इस्तेमाल का खर्च ठीक से नहीं जोड़ा जाता हो और किसानों को फसलों की न्यूनतम लागत भी नहीं मिल रही हो तब खेती को घाटे का सौदा बनानेवाले नीति निर्धारकों द्वारा किसान को लालची कहकर पानी की बरबादी के लिए दोषी मानना नाइंसाफी है. यह समझना होगा कि सिंचाई के लिए पानी का उपयोग ‘किसान के लिए नहीं, किसान के द्वारा’ होता है.

वर्षा और अन्य स्रोतों से पानी के रिसाव से वार्षिक भू-जल प्राप्त होता है. वर्षा के पानी के रिसाव के लिए जंगलो का जैसा योगदान है, वैसे ही खेती का भी है. खेती में जमीन की खुदाई के साथ-साथ फसलें और बाग की भूमि पानी के रिसाव का काम करती हैं. इस प्रकार होनेवाला जल-संग्रहण दूसरे किसी प्रक्रिया से ज्यादा रिसाव कराता है.

वे लोग जिनकी जल संरक्षण में थोड़ी भी भूमिका नहीं है, जिनके लिए जंगल काटे जाते हैं और जिन्होंने शहरों में सीमेंट कंक्रीट के रास्तों से पूरी जमीन ढककर शहरी भू-गर्भ में पानी खत्म किया है और एक उपभोक्ता के नाते औद्योगीकरण, जल प्रदूषण, तापमान वृद्धि और उसके कारण बढ़ते वाष्पीकरण के लिए जो ज्यादा जिम्मेदार है, उन्हें कम-से-कम पानी की बरबादी के लिए किसानों को बदनाम करने का काम बंद कर देना चाहिए.

मनुष्य को जीने के लिए जितना जरूरी है, उतना ही पानी का इस्तेमाल करना हरेक सजीव का प्राकृतिक अधिकार है. जब देश की 80-85 प्रतिशत आबादी अभावों में जीने के लिए मजबूर है, तब पीने का पानी, कृषि उत्पाद या औद्योगिक वस्तुओं के कुल खपत का बहुत-थोड़ा बंटवारा उनके हिस्से आता है. इसलिये पानी के संकट के लिए किसान और जनसंख्या को जिम्मेदार मानना तथ्य के विपरीत है.

देश-दुनिया में पानी का संकट एक भोगवादी जीवनशैली की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने, पानी को व्यापार की वस्तु बनाने और उसे बेचकर मुनाफा कमाने के उद्देश्य से किए गए केंद्रित जल नियोजन और पानी की कमी से निपटने के नामपर किए गए उपायों का परिणाम है. अन्यथा कोई कारण नहीं है कि भारत में प्रचुर मात्रा में वर्षा होने और पानी की उपलब्धता होने के बावजूद देश की आधी आबादी को पीने के लिए भी पानी उपलब्ध ना हो और उन्हें उसे प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना पड़े.

पानी संकट के लिए आम लोगों, किसानों पर उसका दोष मढ़ना भी कॉरपोरेट की साजिश का हिस्सा है. ऐसा करके ही वह समाज का अधिकार छीनकर पानी पर कब्जा करने में सफल हो सकते हैं.

राष्ट्रीय जलनीति 2012 और खरीफ फसलों के लिए मूल्य नीति आयोग 2015-16 के अनुसार पानी की खपत के लिए किसानों को जिम्मेदार मानकर उसे बलि का बकरा बनाया जा रहा है. सिंचाई और पेयजल के लिए भू-जल के अत्यधिक उपयोग को विनियमित करने के लिये ‘लाभार्थी मूल्य चुकाए’ के सिद्धांत को लागू किया गया है, जिसमें खेती के लिए पानी एवं बिजली की प्रति हेक्टर उपयोग की सीमा निर्धारित की जायेगी, पानी की खपत सभी नहरों, ट्यूबवेल, कुओं पर मीटर लगाकर नापी जाएगी और अतिरिक्त पानी और बिजली उपयोग के लिए घरेलू लागत की दर से कीमत वसूली की जाएगी. सिंचाई के लिए पानी और बिजली पर दी जानेवाली सब्सिडी खत्म करने और अधिक पानी की जरूरत वाली फसलों- चावल, गेहूं, कपास और गन्ना के उत्पादन को हतोत्साहित करने के लिए फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य नियंत्रित करने की सिफारिश नीति आयोग के द्वारा की गई है.

अगर ग्रामीण और गांव समृद्ध होते और पानी का नियोजन करने में सक्षम होते तब वह पशु और पक्षी सहित मनुष्यों को पीने और घरेलू इस्तेमाल के लिए पानी, खेती के लिए सिंचाई, ग्रामीण उद्योगों के लिए अपने गांव की पानी की आवश्यकता सुनिश्चित कर पाते. बारिश के आधार पर गांव की परिसीमा में कितना पानी संचित किया जा सकता है और उसके क्या-क्या तरीके अपनाए जा सकते हैं, इसका आंकलन करते. पानी का हिसाब लगाते और पानी का गांव केंद्रित नियोजन करते.

उपलब्ध पानी में से पड़ोसी गांवों और फिर देश की आवश्यकता पूरी करने के लिए पानी का एक हिस्सा रखते. तब पानी की दृष्टि से ग्रामीण और गांव समृद्ध होते और वह लोग जिनका पानी भंडारण करने में कोई योगदान नहीं है, वह पानी के लिए याचक होते.

लेकिन एक साजिश के तहत इस बात को उलटा गया है. इसके लिये कॉरपोरेट, विश्व बैंक और सरकार ने मिलकर दीर्घकाल से केंद्रित और पूंजी आधारित जल नियोजन के द्वारा ग्रामीणों और गांवों के हिस्से का पानी छीनने और बड़े शहरों, अमीरों व उद्योगों तक पानी की पहुंच बनाने की योजनाओं पर काम किया है. सरकार, कॉरपोरेट मीडिया और कॉरपोरेटी धन पर पोषित एनजीओ मिलकर पानी के संकट के लिए लोगों को मुफ्त पानी मिलने की वजह बताकर किसानों और ग्रामीणों को जिम्मेदार ठहराते रहे ताकि पानी की कीमत वसूलने के लिए नीतियां बनाई जा सके. पानी को बिक्री की वस्तु बनाने के लिए बनाए गए कानूनों का विरोध करने के बजाय जनसंघर्ष को पानी के दाम कम करने की दिशा में मोड़कर पानी को निजी मालकियत की मान्यता प्रदान करने में एनजीओ की बड़ी भूमिका रही है.

आज जिनके पास पैसा है, वह चाहे जितना भोग करे, उनके लिए विपुल मात्रा में पानी उपलब्ध है और पैसे के अभाव में जीनेवाले लोग पानी के लिए याचक बनकर कतारों में खड़े हैं या प्रदूषित पानी पी रहे है. यह सब पानी को व्यापार की वस्तु बनाने के लिए की गई जादूगरी से हुआ है.

भारत का विशाल जल भंडार और बाजार की उपलब्धता के कारण कॉरपोरेट और सरकार मिलकर पानी का व्यापार करने के लिए नीतियां और कानून बना रही हैं. उसके लिए पानी को व्यापार की वस्तु बनाना, पानी को राज्य सूची से समवर्ती सूची में लाना, सुखभोग अधिनियम 1882 में बदलाव कर भूजल पर सरकार की मालिकी स्थापित करना और उसे व्यापार के लिए कंपनियों को बेचने का अधिकार देना, सिंचाई के लिए बने बांधों के पानी का उद्योग और व्यापार के लिये हस्तांतरण करना, नदी जोड़ योजना द्वारा जल भंडारण और जल परिवहन के लिए पानी उपलब्ध कराना आदि काम सरकार द्वारा किए जा रहे हैं. पानी के निर्यात, बोतलबंद पानी, गांवों और शहरों में कैन और बोतलबंद पानी के द्वारा देश के लोगों को सभी जगह पानी बेचा जा रहा है. घर-घर नल, घर-घर जल बिजनेस मॉडल के तहत पानी की बिक्री की पहुंच बढ़ाने और घर-घर तक विस्तार करने का प्रयास है.

संविधान के अनुच्छेद-21 में वर्णित जीवन के अधिकार में हवा, पानी और कृषि का अधिकार भी शामिल है. सर्वोच्च न्यायालय ने पेय जल तक पहुंच और सुरक्षित पेय अधिकार को मूलभूत सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया है.  इसलिए भारतीय संविधान हवा और पानी बेचने की अनुमति नहीं देता.

भारत के सांस्कृतिक विकास में नदियों की अहम भूमिका है. धार्मिक आस्था, नदी के प्रति पवित्रता के भाव के कारण नदियों के तट–  साधना, तीर्थस्थान, तीर्थाटन के केंद्र बने. लेकिन अब पवित्र नदियों का पानी बेचने और सस्ते माल ढुलाई के लिए नदी मार्ग से जल परिवहन करने, धर्म स्थानों को पर्यटन के भोगवादी अड्डे बनाने और इस प्रकार लोगों की आस्थाओं का भी व्यापार करने के काम में वर्तमान सरकार लगी हुई है.

सस्ते माल ढुलाई के लिए नदी मार्ग से जल परिवहन पर विचार अंग्रेजी राज में शुरू हुआ था. लेकिन इसपर अमल न करने का प्रमुख कारण भारत की धार्मिक पृष्ठभूमि रही. भारतीय समाज जीवन का आधार हवा और पानी की बिक्री करना धार्मिक दृष्टि से महापाप मानता है. लोगों की इस आस्था और सांस्कृतिक विरासत पर हाथ डालने का काम अंग्रेज भी नहीं कर पाए थे और ना ही आजादी के 70 साल में किसी ने किया लेकिन वर्तमान सरकार यह दुस्साहस करने जा रही है.


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