राहुल गांधी के फैसले के प्रति आदर भाव क्यों नहीं होना चाहिए?


rahul gandhi again replied to satyapal malik

 

महात्मा गांधी की 150वीं जयंती का साल चल रहा है. लेकिन एक तो अज्ञानता के चलते नई पीढ़ियां उनसे दूर होना चाहती हैं. वहीं एक पूरी जमात सजगता के साथ गांधी के योगदान को धो-पोंछकर बहा देना चाहती हैं.

यह मनुष्यता को धर्म और समुदाय के खांचे में बांटकर देखने वालों का समय है. देश भीषण सांप्रदायिकता की चपेट में है. उदारता और सर्वधर्म समभाव का स्पेस सिकुड़ रहा है. उन्माद और हिंसा को प्रोत्साहन मिल रहा है. समाजवादी और साम्यवादी दलों का वजूद मिट सा गया है, जितना है, उतने से समावेशी विचारों को ताकतवर बनाने की अपील पैदा नहीं हो पा रही है. ऐसे माहौल में आज महात्मा गांधी जिस विराट मनुष्यता के पक्ष में अपना सब कुछ समर्पित कर गए, उन्हें उसी के लिए दोषी बताने वाला संकुचित विचार इन दिनों अपनी जड़ें फैला रहा है.

ऐसे में मुख्य रूप से कांग्रेस पार्टी ही शेष बची हुई नज़र आती है, जो सांप्रदायिकता और विराट मनुष्यता के गांधीवादी विचार को बचाने और उसे फिर से मुख्यधारा में स्थापित करने का काम कर सकती है. हालांकि एक दल के रूप में उसने खुद को धीरे-धीरे विचारहीन हो जाने से रोकने का कोई सार्थक प्रयास नहीं किया. बावजूद इसके कांग्रेस ही संपूर्ण देश में, इस तरफ के पक्ष वाला ऐसा एकमात्र दल है, जिसकी धूल धूसरित ही सही, पर जन अपील अभी बाकी है. यों 2019 के आम चुनाव में उसने मात्र 54 सांसद ही हासिल किए हैं, परंतु 12 करोड़ मतदाताओं की विशाल पूंजी भी उसी ने अर्जित की है.

स्वाधीनता आंदोलन की अलभ्य राजनीतिक पूंजी उसके पास है. बलिदानियों की विरासत उसके संग है. गोखले, तिलक, गांधी, नेहरु, सुभाष और भारतीय परंपराओं ने उसके राजनीतिक दर्शन को गढ़ा है. महात्मा गांधी जैसा विश्वव्यापी व्यक्तित्व उसी के अभिभावक और पितृ-पुरुष हैं. उनका जीवन और सिद्धांत अब भी रास्ता दिखाने वाली मशालें हैं.

राहुल गांधी के इस्तीफे को मीडिया में पहले ढोंग कहा गया, फिर मजाक उड़ाया गया और तब भी राहुल अपने इस्तीफे पर डटे रहे, तो इसे उनका पलायन बताकर भर्त्सना की जाने लगी. क्या भारतीय मीडिया पूर्वाग्रही है, अथवा वह संवेदनहीन हो चुका है या फिर उसके स्वभाव में ही क्रूरता एक प्रमुख गुण बन गया है? ये कुछ सवाल हैं, जिनके जवाब खोजे जाने हैं.

राहुल गांधी ने अब तक अपने बयानों से लेकर राजनीतिक क्रियाकलापों तक, नैतिक व्यवहार ही किया है. वे एक साफ-सुथरी और सादगी वाली राजनीति की क्षीण पड़ चुकी धारा के राजनेता प्रतीत होते हैं.

राहुल गांधी राजनीति में आए तो हमारे देश के एक प्रमुख राजनीतिक दल ने उनकी सादगी और मासूमियत को ही उनका अवगुण बताते हुए, उन्हें ‘पप्पू’ कहना आरंभ कर दिया था. बाद में मीडिया का एक वर्ग भी इस अभियान में शामिल हो गया.

राहुल गांधी अपनी पार्टी के अध्यक्ष हैं. अपने नेतृत्व में पार्टी को सत्ता तक नहीं पहुंचा पाने के लिए अपनी नैतिक जिम्मेदारी को स्वीकार कर रहे हैं. पद से इस्तीफा दे चुके हैं और अपनी बात पर अडिग हैं. उन्होंने यह इच्छा भी व्यक्त की है कि अगला अध्यक्ष गांधी परिवार से न हो. यानी वे अपनी बहन प्रियंका गांधी के लिए भी रास्ता नहीं बना रहे हैं. तो अब हमें क्या दिक्कत है. हमें उनकी भावना का सम्मान क्यों नहीं करना चाहिए? उसके प्रति हमारा आदर भाव क्यों नहीं होना चाहिए? राजनीति में नैतिकता के प्रतिष्ठापन की दिशा में यदि एक कदम बढ़ाया गया है, तो उस पर संशय पैदा करके, क्या हम नैतिकता को ही संशयों के कूप में नहीं डाले दे रहे हैं?

तमाम तरह की अनैतिकताओं और खुले गैर लोकतांत्रिक आचरणों के बावजूद 2019 में एक दल सत्ता में फिर से आ गया. ऐसा प्रतीत होता है कि सत्तारोहण मात्र ही अब कसौटी बन गया है. जीतने वाले पक्ष को सर्वश्रेष्ठ और सर्वोत्तम मान लिया गया. सफलता ने उसके अवगुणों को धो दिया.

राहुल गांधी को भी अब देश की यात्रा और सामाजिक अभियान पर निकल पड़ना चाहिये. राहुल गांधी मौजूदा समय के सबसे ज्वलंत और आम आदमी से जुड़े हुए पानी के मुद्दे को सामाजिक अभियान बनाकर अपनी यात्रा शुरु कर सकते हैं. पानी को सहेजने, बचाने और उस पर समाज का अधिकार स्थापित करने के अभियान से बड़ा और कोई अभियान नहीं हो सकता. सूखे दिनों में तालाबों के निर्माण में वे खुद और अपनी कांग्रेस को लगा सकते हैं.

कांग्रेस ने ही ‘सूचना का अधिकार कानून’, ‘शिक्षा का अधिकार कानून’, ‘रोज़गार गारंटी कानून’ और ‘खाद्य सुरक्षा कानून’ देश को दिये. ‘सूचना का अधिकार कानून’, पारदर्शी लोकतांत्रिक सरकार का चरित्र गढ़ता था. ‘शिक्षा का अधिकार कानून’ सबके लिये शिक्षा के द्वार खोलता था. ‘ग्रामीण रोज़गार गारंटी कानून’ ग्रामीणों को खेती करने से बचे हुए वक़्त में 100 दिनों के रोज़गार की गारंटी देता था. कांग्रेस सरकार ने इन्हें लागू भी किया और देश में लोकतांत्रिक पारदर्शिता और आम आदमी के प्रति गंभीर जवाबदेही का नया युग शुरू हुआ.

इन सबसे ज्यादा क्रांतिकारी था, राहुल गांधी के प्रयासों से बना, ‘भूमि अधिग्रहण कानून’. जब यह कानून भी पारित कर दिया गया, तो देश के अमीरों के कान खड़े हो गये. उन्हें अपने हित डूबते नज़र आने लगे और किसानों-मजदूरों के हितों का कड़ा संरक्षण उनकी आंखों में चुभने लगा था. तब उन सबने मिलकर कांग्रेस को सत्ता में न आने देने के लिये नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करने के लिये जी जान ही नहीं लगायी दी थी, बल्कि अपने खजानों का मुंह भी खोल दिया था.

कांग्रेस ने 2014 में अपनी सत्ता इसलिये नहीं खोयी, और न ही वह 2019 में सत्ता तक पहुंचने में इसलिये असफल रही, कि उसके पास नेतृत्व, कार्यक्रमों और पार्टी नेटवर्क की कमी थी, बल्कि उसे सत्ता से बाहर कर देने के पीछे, जन-हितैषी कानूनों से भयभीत कार्पोरेट और सांप्रदायिक शक्तियों का प्रतिगामी गठजोड़ ही रहा है. सबसे दु:खद तो यह है कि आम जनता, किसानों और मजदूरों को इस बात का जरा सा भी अहसास तक नहीं है, कि उनके हितों की रक्षा करने वाली एकमात्र पार्टी की बलि इसलिये चढ़ गयी, क्योंकि वह उसके लिये जी जान से जुटी थी.

असल में सरकार के स्तर पर जो कुछ किया जा रहा था, उसे जनता तक पहुंचाने वाला पार्टी तंत्र कहीं काम ही नहीं कर रहा था. होना तो यह था, कि इसके पक्ष में देश भर में किसानों और मजदूरों के जुलूस निकाले जाते. सरकार का शुक्रिया अदा किया जाता. जब इंदिरा जी ने बैंको का राष्ट्रीयकरण और राजाओं-नवाबों का प्रिवीपर्स बंद किया था, तो देश भर में जलसे हुए थे और कांग्रेस के चरित्र में बदलाव को आम जन ने महसूस किया था.

राहुल गांधी देश-यात्रा पर निकलकर इस सत्य को जनता के बीच उजागर करने और उन्हें उनकी गलतियों का अहसास कराकर अपने प्रति सच्ची सहानुभूति प्राप्त कर सकते हैं. उन्हें ‘नामदार’ कहकर मजाक उड़ाया गया था, पर इसी रास्ते से वे असली ‘नामदार’ बनकर भी उभर सकते है.


प्रसंगवश